प्रकाश सिंह, पूर्व पुलिस महानिदेशक उ०प्र० का कहना है...
खाकी में इंसान एक पुलिस अधिकारी द्वारा लिखी गई एक बेहतरीन पुस्तक है। जीवन के अनुभव से लिखी गई ये अद्भुद कहानियां पुलिस की मानवता और दयालुता को दिखाती हैं। दुर्भाग्य से मीडिया में पुलिस की ज्यादतियों और बर्बरता की खबरें तो मुख्य पृष्ठों पर छापी जाती हैं परन्तु पुलिस द्वारा किये गये बहुत से अच्छे कार्यों का जिक्र तक नहीं हो पाता। अशोक ने ऐसे घटनाक्रमों का उल्लेख किया है, जहां मानवीय और संवेदनशील दृष्टिकोण से पुलिस द्वारा किसी बलात्कार की शिकार महिला, वसूली की धमकी पाये हुए आदमी या ऐसे आदमी जिसकी जमीन छीन ली गयी हो, के आंसू पोछे गये हों। पुस्तक का केन्द्रीय भाव है कि सिस्टम में आने वाली अड़चनों के बावजूद, सिस्टम के अन्दर रहते हुए भी एक पुलिस अधिकारी लोगों के जीवन, सम्पत्ति एवं सम्मान की रक्षा कर उनकी सेवा कर सकता है।
पुस्तक में एक ऐसे पुलिस अधिकारी के खट्टे-मीठे अनुभवों की झलक मिलती है जो जमीनी हकीकत समझते हुए आम आदमी को उसका हक और न्याय दिलाने के लिए कटिबद्ध है। साथ ही वह उन लाखों पुलिसजनों की पीड़ा को भी समझता है, जो हर पल चाकू की धार पर चलते हुए अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाते हैं। ऐसे प्रत्येक खाकी में इन्सान को मेरा कोटि-कोटि सलाम। श्री अशोक कुमार का पुस्तक लेखन का यह प्रयास वास्तव में प्रशंसनीय है।
यह एक दिलचप्स तथ्य है कि आजादी के पहले आई०सी०एस० अफसरों ने वनस्पतियों, जनजातियों तथा इतिहास के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। जार्ज आरवेल को छोड़ दें तो किसी भी आई०पी०एस० अफसर का उल्लेखनीय काम नहीं दिखायी देता। संभवत: ऐसा इसलिए हुआ कि अंग्रेजों ने आई०सी०एस० के बरक्स आई०पी० अधिकारियों की बौद्धिक क्षमताओं को काफी कमतर रखा। शायद उन्हें अपने शासन चलाने के लिए संवेदनशील और पढ़े-लिखे पुलिस अधिकारियों की आवश्यकता नहीं थी। आजादी के बाद स्थिति तेजी से बदली है। आई०ए०एस० और आई०पी०एस० अधिकारियों के शैक्षणिक और बौद्धिक स्तरों में समानता आते ही दोनों की रचनात्मक उपलब्धियों में भी फर्क मिटता नजर आने लगा है। यह भी कहा जा सकता है कि आई०ए०एस० के मुकाबले ज्यादा आई०पी०एस० अधिकारी इस समय लेखन की दुनिया में सक्रिय हैं। ऐसा संभवत: आई०पी०एस० अधिकारियों को मिल सकने वाले विविध अनुभवों के कारण संभव हो सका है। भाषा, शिल्प तथा गुणवत्ता के लिहाज से पुलिस लेखकों की कृति भी कसौटी पर सही जा सकती है। आज के नए लेखन में जीवन के अलग-अलग कार्य क्षेत्रों से आये लेखक विशाल हिन्दी पाठक समुदाय का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर रहे हैं। ये लोग अपने साथ उन अनुभवों को लेकर आये हैं जिनसे हिन्दी का औसत लेखक अभी तक अपरिचित रहा है। इन लेखकों की वजह से भाषा में वैविध्य बढ़ा है और यह अधिक समृद्ध भी हुयी है। इन्हीं में से कुछ लेखक पुलिस के पेशे से भी आये हैं। खाकी में इंसान पढ़ते हुए कहीं भी ऐसा नहीं लगता है कि यह लेखक की पहली रचना है। कहीं से भी कोई झोल नजर नहीं आता। अशोक कुमार के दो दशकों के पुलिस जीवन से प्राप्त अनुभवों पर आधारित यह छोटी सी पुस्तक खाकी में इंसान एक उम्दा लेखन की मिसाल है। जेलों, थानों तथा पुलिस कार्यालयों के इर्द-गिर्द बिखरा हुआ जीवन कितना दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण हो सकता है, इसे अशोक के अनुभवों को पढ़कर समझा जा सकता है। अशोक ने अपने लेखन के लिए एक सपाट भाषा विकसित की है जो हमें उनके पात्रों से तादात्म्य स्थापित करने में मदद करती है। दरअसल हाल के वर्षों में पुलिस अधिकारियों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हुयी है जो पुलिस को अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाना चाहती है। अशोक का लेखन ऐसे पुलिस अधिकारी की छटपटाहट का उदाहरण है। इसमें आप एक ऐसे पुलिस अधिकारी की जिद भी पायेंगे जो अपनी कर्तव्यनिष्ठा और मनुष्यता के साथ सही अर्थों में जनता की सेवा करना चाहता है। विभूति नारायण राय,कुलपति- महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र