उनका ये कहना, ‘जनता की सेवा करो' सिर आँखों पर... किन्तु हमारा कहना , ‘पहले खुद की सेवा तो कर लो' और अच्छा है! उनका ये कहना, ‘समग्र क्रांति से समाज को बदल डालो' बहुत अच्छा है... किन्तु हमारा कहना, ‘परम्पराओं को बनाए रखो, लीक पर चलते जाओ, यथास्थिति में ही भलाई है' और भी अच्छा है! उनका ये कहना, ‘देश का विकास होगा तभी गरीब जनता से जब खुद जुड़ोगे' किन्तु हमारा कहना, ‘देश के विकास से हमें क्या लेना... खुद का विकास हो जाए, यही बहुत है!' ‘‘जुड़ने दो हमें गोरे साहबों से पहले, परम्परा हैं वो हमारी, जड़ें हमारी हैं इम्पीरियल पुलिस में... कैसे बन जाएँ हम जनता जैसे? उनके तो माई-बाप हैं हम! साहब हैं हम!''
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(इस कविता में ‘उनका' शब्द भारतीय पुलिस सेवा के आदर्शवादी अधिकारियों के लिए प्रयुक्त किया गया है तथा 'हमारा' शब्द का प्रयोग उन पुलिस अधिकारियों के लिए किया गया है, जो आज भी अपनी जड़ें ब्रिटिश समय की इम्पीरियल पुलिस में मानते हैं और खुद को जनता के सेवक के बजाय ‘साहब' समझते हैं।) (‘मेरी डायरी' से - 15 जनवरी, 1990) |
सेवक नहीं, साहब हैं हम…
पुस्तक को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा इसकी पृष्ठभूमि समझने के लिए अतीत में जाना आवश्यक प्रतीत होता है। मैंने हरियाणा के ग्रामीण परिवेश से उठकर आई.आई.टी. दिल्ली में इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की। गाँव से आई.आई.टी. तक के सफर ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि भारत-वर्ष दो परस्पर विरोधी धाराओं में विकसित हो रहा है। एक तरफ तो आगे बढ़ता हुआ ‘इण्डिया' है जहां अंग्रेजीदाँ पब्लिक स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर बचपन से ही साहबी ठाट-बाट में पले धनी और प्रभावशाली लोग हैं...बड़ी-बड़ी गाड़ियों, स्टार-होटलों की चकाचौंध भरी आयातित संस्कृति को वायरल-संक्रमण की तरह तेजी से फैलाते लोग हैं जिन्हें अपनी मातृभाषा बोलने और भारतीय कहलाने में भी शर्म आती है... जो ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं कि अपने इण्डिया की बेहतर शिक्षा पद्धति का फायदा लेने के बाद इस देश की गर्मी, धूल और गरीबी से छुटकारा मिले और वे जितनी जल्दी हो सके इस धरती से अलविदा कहें... विकसित देशों में भाग जाएँ। दूसरी तरफ ‘भारत' में रहने वाले ऐसे करोड़ों देशवासी हैं, जिनके पास रहने को मकान नहीं, खाने को एक जून की रोटी नहीं और पहनने को कपड़ा नहीं! देश के कुछ हिस्सों में तो आजादी के बासठ साल बाद भी बिजली, पीने का पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। ऐसे लोग चपरासी तक की सरकारी नौकरी मिल जाने को अपना सबसे बड़ा सौभाग्य समझते हैं जबकि अपने गाँव-घरों में रहना उन्हें कतई गवारा नहीं।
आई.आई.टी. दिल्ली में रहते हुए मैंने देश के इस खण्डित विकास को बहुत नजदीक से देखा और इसलिए शुरू में ही संकल्प लिया कि अपने अधिकांश साथियों की तरह विदेश जाने का सपना कभी नहीं पालूंगा क्योंकि विदेश जाने को मैं उन दिनों ‘ब्रेन-ड्रेन' समझता था। यद्यपि बाद में मैंने देखा कि विदेश में गए आई.आई.टी. के छात्रों ने विदेशों में भारत की छवि को सुधारने में अहम् भूमिका अदा की। मैं तो इंजीनियर बन कर अपने देशवासियों की सेवा करना चाहता था परन्तु चौथे वर्ष की शुरुआत में औद्योगिक ट्रेनिंग के दौरान मेरा मन बदल गया। मैंने अपनी इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग कलकत्ता में ‘उषा फैन्ज' बनानेवाली कम्पनी में की थी। कलकत्ता की भीड़ भरी, संघर्षपूर्ण जिन्दगी... गाड़ियों की चैं-चैं, पैं-पैं... आधुनिक यंत्रों के कलपुर्जों से घिरी मशीनी जिन्दगी को देखकर ट्रेनिंग के दौरान मुझे अहसास हुआ कि मैं एक इंजीनियर की सीमित दायरे वाली जिन्दगी में सिमट कर रहना नहीं चाहता था।
मैं कोई ऐसी नौकरी करना चाहता था, जिसमें देश सेवा का ज्यादा अवसर हो, जिसमें गरीबी में जी रहे करोड़ों लोगों की मदद करने का मौका मिल सके, देश के आम नागरिकों तक पहुँच कर उनकी समस्याओं का समाधान किया जा सके! मैं सीध्ो आम आदमी से जुड़ कर उनके लिए काम करना चाहता था। ज़िन्दगी जहाँ चुनौतियों से भरी हो... जहाँ मुझे अहसास हो कि मेरे काम से लोगों की ज़िन्दगी में सीध्ो-सीध्ो फर्क पड़ रहा है... ऐसी नौकरी, जहाँ क्षमताओं के अनुरूप काम करने का मौका मिले और जहाँ जिन्दगी अधिक अर्थपूर्ण हो। अपने सहकर्मियों के साथ विचार-विमर्श के बाद इन अपेक्षाओं की पूर्ति हेतु मुझे भारतीय सिविल सेवाओं के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं दिखाई दिया। मैंने भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा देकर ऊँचे आदर्शों के साथ भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन की। ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से देश की सेवा करनी है तथा गरीबों और असहायों की मदद करनी है। हम यह भी सोचते थे कि सिविल सेवा में आने वाले बाकी लोग भी हमारी तरह के आदर्शवादी विचारों वाले होंगे क्योकि भारतीय सिविल सेवाओं की परीक्षा की तैयारी के दौरान देशभक्ति और लोगों की सेवा करने का जज्बा़ मन में और अधिक प्रबल हो गया था।
आई.ए.एस. और आई.पी.एस. दोनों सेवाओं की प्रारम्भिक ट्रेनिंग लालबहादुर शास्त्री अकादमी-मसूरी में होती है। अपने ऐसे ही सपनों, संकल्पों और आदर्शों से भरे हम लोग मसूरी पहुँचे थे। मसूरी अकादमी पहुँचने पर मुझे पहली ठोकर तब लगी, जब एक दिन खाने की मेज पर किसी साथी ने इस तरह के आदर्शों का खुलेआम मजाक उड़ाया और कहा, “बॉस, किस दुनिया की बातें कर रहे हो! देश-सेवा, समाज-सेवा जैसी आदर्शवादी बातें तो सिर्फ इंटरव्यू में बोलने के लिए होती हैं। भई, हम तो सीध्ो-सीध्ो पावर, पैसा और स्टेटस पाने के लिए इन सेवाओं में आए हैं।''
मुझे तो मानो सॉँप सूँघ गया! मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि कुछ लोग पहले दिन से ही इन सेवाओं को अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए ज्वाइन कर सकते हैं। परन्तु धीरे-धीरे मैंने हैरान होना छोड़ दिया क्योंकि मैंने पाया कि अकादमी में आध्ो लोग पहले से ही उच्च वर्गीय विकसित परिवारों से आए थे। सामान्यतः इनमें से अधिकांश लोग यथास्थितिवादी होते थे जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि सम्पन्न, वैभवशाली और इन्हीं सेवाओं से जुड़ी थी। वे लोग इनसे जुड़े नियम-कायदों को पहले से ही जानते थे और ऐसे लोगों को व्यवस्था का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने में किसी तरह की न तो हिचक महसूस होती थी और न ही शर्म। ऐसे लोग सीध्ो-सीध्ो पावर, पैसा और प्रसिद्धि पाने के लिए अधिकारी बनते हैं।
परन्तु अच्छी बात यह थी कि सभी लोग ऐसे नहीं थे, बड़ी तादाद ऐसे लोगों की भी थी जो वास्तव में जनसेवा, देशसेवा की भावना लेकर इन सेवाओं में आए थे। उन लोगों का उद्देश्य समाज के निचले तबके के लोगों की मदद करना था... वो तबका, जो धर्म, अर्थ, वर्ण या लिंग के भेदभाव के कारण विकास के निचले पायदान पर ही अटका रह गया था।
अकादमी में हमें खाने-पीने, पहनने के साहबी तौर-तरीके सिखाये गए। काँटे और छुरी का कैसे प्रयोग होना है, चम्मच को कैसे रखा जाना है, मेज पर कैसे बैठना है आदि-आदि...। इस ट्रेनिंग में कहीं-न-कहीं ब्रिटिश सामंंंतवादी व्यवस्था की झलक दिखाई देती थी। मुझे ऐसी आशंका हुई कि कहीं हमें साहब बनना तो नहीं सिखाया जा रहा था जिससे कि हम आम जनता से खुद को अलग और खास समझें। हमारे और आम जनता के बीच का ‘गैप' बना रहे। हमारा कुछ ऐसा रुआब हो कि आम आदमी आसानी से हमारे पास आने का साहस न जुटा पाए। यह भी सम्भव था कि यह सब हमें इसलिए सिखाया जा रहा हो, जिससे कि हम साहबों वाले माहौल में अपने को बाहरी न समझें, किसी हद तक यह जरूरी भी लगा। यह तो अधिकारी की संवेदनशीलता पर निर्भर करता था कि वह ऐसी साहबियत को अपने अन्दर किस सीमा तक आत्मसात करते हैं।
आजादी से पहले भारतीय पुलिस सेवा को इम्पीरियल पुलिस (आई.पी.) यानी ब्रिटिश सम्राट की पुलिस कहा जाता था। आजादी के बाद इसका नाम बदल कर आई.पी.एस. (भारतीय पुलिस सेवा) कर दिया गया। देश के नीति निर्धारकों की उस समय यह मंशा थी कि भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी आजादी के बाद सचमुच में जनता के सेवक की भूमिका निभायेंगे और उनमें अंग्रेज़ी जमाने की साहबियत की झलक खत्म हो जाएगी। वे आम जनता के दुख-दर्द को समझते हुए उनकी सेवा करेंगे। देश को जिस विकास की जरूरत है, जिस नई वैचारिक व प्रशासनिक क्रान्ति की आवश्यकता है, उसमें भी वे अग्रणी भूमिका निभायेंगे। किन्तु शायद ये उम्मीदें कुछ ज्यादा ही थीं और भारतीय सिविल सेवाओं (आई.ए.एस. और आई.पी.एस.) में आने वाले अधिकांश लोग साहब ही बने रहना चाहते थे।
टे्रनिंग के दौरान अकादमी की ओर से हम लोगों को एक सप्ताह के लिए गाँवों के भ्रमण हेतु भेजा जाता है जिसे ‘रैपिड रूरल एप्रेजल' कहा जाता है। इस प्रोगाम के तहत सभी प्रशिक्षणार्थियों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े गाँवों में भेजा जाता है, जिससे कि देश के भावी प्रशासक ग्रामीण भारत के सच को निकट से देख सकें और वहां की समस्याओं को देख व समझ सकें। हम लोगों का ग्रुप उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में गया।
बाँदा बुन्देलखण्ड क्षेत्रा में स्थित उत्तर प्रदेश का एक बहुत ही पिछड़ा हुआ जिला है। यह क्षेत्रा काफी बीहड़ और पथरीला है। क्षेत्रा में चारों ओर गरीबी और हताशा का साम्राज्य नजर आता है। बाँदा की लाल मिट्टी, दूर-दूर तक फैले हुए एल्यूमिनियम के पिचके कटोरों की तरह के खाली मैदान, चरम हताशा और अकेलेपन का रोना रोती हुई अभावग्रस्त झोपड़ियाँ और युग-युगों से अपने लिए कोई सहारा खोजती काँटेदार वनस्पतियाँ और उनके हमशक्ल इंसान...।
हम लोग जब जनपद बाँदा के सरकारी डाकबंगले में पहुँचे तो हमारी आवभगत को काफी सरकारी अमला खड़ा था, जो ‘जी, हुजूर, साहब और सर' के बिना बात ही नहीं करता था। उनके व्यवहार में इतनी गुलामी झलकती थी कि उसकी हमें न तो आदत थी और न ही अपेक्षा। उनके व्यवहार से लगता था कि मानो उन्हें लग रहा था कि सचमुच उनके घर पर देश के भावी ‘भाग्य विधाता' पहुँचे थे। मानो हम उनकी रियासत के राजकुमार हैं जो बहुत दिनों के बाद अपनी जनता के बीच आए हैं।
हम लोगों को क्षेत्र में घूमने के लिए एक जीप दी गई थी। हमें बाँदा से आगे बरगढ़ नाम के एक गाँव में भेजा गया। साथ ही हमें यह भी सलाह दी गई कि रात में यात्रा न करें क्योंकि पूरे बाँदा जनपद में ‘ददुवा' नामक डकैत का आतंक है। ददुवा एक पुराना अपराधी था, जो हत्या, डकैती व फिरौती वसूलने के लिए कुख्यात था। मगर अपनी जाति का समर्थन प्राप्त होने के कारण वह पुलिस की पकड़ में नहीं आ पाता था। मुझे हैरानी हुई कि ऐसे भी डकैत हैं जो पुलिस की पकड़ से दूर हैं और जिनसे प्रशासन भी भय खाता था।
हम लोगों ने अगले छह दिन बरगढ़ और उसके आस-पास के गाँवों में बिताए। पूरा क्षेत्रा घोर गरीबी और उपेक्षा का शिकार था। न पीने के पानी की सुविधा, न बिजली की व्यवस्था और न खेती योग्य जमीन। मिट्टी के कच्चे घर, आध्ो-अधूरे कपड़ों में दौड़ते बच्चे, पेड़ की छाँव में बिछी टूटी खाटें, खेती करने के वही पुराने औजार, कहीं-कहीं तो बैलों की जगह जुता हाड़मांस का पिंजर इंसान, लकड़ी के गट्ठर ढोती औरतें और पानी से भरी गागर ले जाती बच्चियों को देख विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं की धरातली वास्तविकता देखने को मिली। वहाँ जाकर यह भी समझ में आया कि क्षेत्रा में आय के दो ही साधन हैं खेती और पत्थरों की खदान। इन दोनों पर एक वर्ग-विशेष, मुख्य रूप से धनी लोगों का कब्जा था। अधिकांश लोग भूमिहीन मजदूर थे जो छोटे-छोटे घरेलू खर्चों के लिए धनी लोगों से ऋण लेते थे और उस ऋण को चुकता करने में ही उनकी जिन्दगी बँधुवा मजदूरों की तरह गुजर जाती थी। उन्हें गरीबी से छुटकारा मिलने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती थी। अमीर और गरीब के बीच एक चौड़ी खाई थी जिसे भरना मुमकिन नहीं लगता था।
देश में बँधुवा मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए कानून था, ‘बँधुवा मजदूर अधिनियम'। लेकिन कानून बनाने से तो सामाजिक और आर्थिक विसंगतियाँ खत्म नहीं हो जातीं। पूरे जिले में न तो उस कानून का कोई असर नजर आ रहा था और न ही सामाजिक असमानता खत्म होने के आसार नजर आ रहे थे। सरकार द्वारा गरीबी उन्मूलन के ढेरों कार्यक्रम चलाये गए थे परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अधिकांश कार्यक्रम सरकारी कर्मचारियों और कुछ विशेष लोगों को ही फायदा पहुँचा रहे थे। जिन लोगों के लिए कार्यक्रम बनाये गए थे, वे अब भी इन कार्यक्रमों के लाभ से अछूते थे।
एक सप्ताह तक उस क्षेत्रा में रहकर हम लोग काफी हद तक क्षेत्रा की जानकारी प्राप्त करने में सफल हुए। आखिरी दिन जब हम ऐसे ही एक गांव में लोगों से बातें कर रहे थे, एक पच्चीस वर्षीय युवक से हमारा सामना हुआ जिसका नाम ‘हमारी' था। वह बहुत ही दुबला, पतला व कमजोर था। वह गुलामों की तरह लगता था... व्यवस्था का दास, सदियों से बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक दीन-हीन और निरीह प्राणी, जिसको सरकारी कार्यक्रमों से न कोई मदद मिल पा रही थी और न उसे किसी तरह की जानकारी थी। हम लोगों की सहानुभूति भरी बातें सुनकर उसमें उत्साह जागा और वह अचानक ही आक्रोशित हो उठा। ऐसा लग रहा था मानो सदियों से दबाई गई उसकी खामोशी अचानक बाँध तोड़कर बाहर निकल आई हो। ‘‘हमने बहुत सहन कर लिया, अब हम अन्याय सहन नहीं करेंगे, हम अन्याय के खिलाफ संघर्ष करेंगे... जानवरों की तरह खामोश नहीं बैठेंगे हम... आखिर हम भी तो इंसान हैं।''
हमारे गु्रप के बाकी लोग उसमें एकाएक उपजे इस आक्रोश को देखकर पता नहीं क्या सोच रहे थे, परन्तु मेरे मन में उसके प्रति सहानुभूति पैदा हुई। उस वक्त मेरे पास उसे देने के लिए बौद्धिक करुणा के सिवा और कुछ भी नहीं था। मैं स्वयं को पूर्णतया असहाय अनुभव कर रहा था। लेकिन इस यात्राा से मेरे मन के इस संकल्प को बल मिला कि भविष्य में मुझे जो प्रशासनिक अधिकार प्राप्त होंगे, उनसे मैं किसी सीमा तक इन सामाजिक विसंगतियों को दूर कर सकूंगा। मुझे यह भी समझ में आने लगा था कि हमारे समाज में करने को बहुत कुछ है, बशर्ते कि हमारे अंदर कुछ कर सकने का जज्बा़ हो। इस यात्राा में मैंने यह भी महसूस किया कि लोगों की हमसे इतनी अपेक्षाएं पैदा हो गई थीं कि मैं उनके बोझ तले अपने को दबा महसूस करने लगा था। लेकिन मुझे इस बात का भरोसा था कि एक न एक दिन हम कुछ करने की स्थिति में होंगे और तब अवश्य ही इन लोगों की जिन्दगी में सकारात्मक परिवर्तन कर सकेंगे।
इस यात्रा में मैंने एक ओर ‘माई-बाप संस्कृति' को नज़दीक से देखा तो दूसरी ओर ब्यूरोक्रेसी की ‘जीप व डाकबंगला संस्कृति' को। कुछ दोस्तों के लिए यह ‘रेपिड रूरल' की बजाय ‘रेपिड रॉयल दौरा' बन कर रह गया था। वे लोग इस पूरे दौरे को सरकारी पिकनिक की तरह मनाते रहे और देश की गरीबी के मानचित्रा को अपने कैमरों में विभिन्न कोणों से कैद करते रहे।
रेपिड रूरल एप्रेजल के बाद जब हम लोग वापस अकादमी की ओर जा रहे थे, तो मेरे मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। देश के सामने ढेर सारी समस्याएं मुँह-बाये खड़ी थीं और मुझे इन समस्याओं में अपने लिए एक चुनौती नजर आ रही थी। जिस उद्देश्य से मैंने भारतीय पुलिस सेवा को चुना था, उन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए मैं ट्रेनिंग खत्म कर जल्द से जल्द अपनी कर्म भूमि में उतरने को उतावला हो रहा था।
(अशोक कुमार)
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प्रिय, अशोक सर... वैसे तो दिल से आपको सम्माननीय लिखना चाहता हूँ.. आपके विचार पढ़कर यकीं हुआ कि आज भी हमारे देश में इमानदार अफसरान की कमी नहीं है.. पढ़ के कितनी खुशी हुई ज़ाहिर नहीं कर सकता. एक I.P.S. श्री सूर्यकांत शुक्ल जी हमारे यहाँ कुछ वर्ष पहले रहे थे.. उन्हें देखकर भी पुलिस सेवा पर यकीं होता था.
जवाब देंहटाएंआपने जिस तरह से अपने संस्मरण सामने रखे उससे ये भी पता चलता है कि 'HUMAN IN KHAKI' में कितना कुछ होगा.. आपकी बात के समर्थन में कहूँगा कि अधिकारी समाज के प्लंबर की तरह होते हैं जो वर्षों से समाज और देश के विकास की नालियों में जमते जा रहे अज्ञान, अशिक्षा और अभाव के कारण आये ब्लोकेज को निकलने का काम करते हैं और प्रगति के प्रवाह को सतत बनाते हैं.. ऐसे ही और भी लेखों कि उम्मीद करता हूँ आपसे... अभी तो मैं यू.के. से पीएच.डी. कर रहा हूँ... यहाँ आपकी बुक कैसे मांगों कृपया बताने का कष्ट करें...
जय हिंद...
अशोक जी,
जवाब देंहटाएंआपका आलेख आपके प्रति विश्वास, निष्ठा और सम्मान जगा गया है ...
पृथ्वी शायद आप जैसे लोगों की ही वजह से टिकी हुई है...
सर्वश्री दिवंगत रणधीर वर्मा जी को मैं भईया कहती थी...मैं उनके परम प्रिय गुरु वीरेंदर नाथ की सुपुत्री हूँ...
उनके प्रति मेरा अटूट विश्वास था/है और दूसरे थे श्री मदन मोहन झा...आज भी उनको देवता के समक्ष ही मानती हूँ मैं...
आपका आलेख पढ़ कर उन्दोनो महापुरुषों की याद आ गई...
बहुत अच्छा लगा आपको पढना...
आपके सुलझे विचार और अनुभव पढ़कर अच्छा लगा. यह ज्योति इसी तरह जलती रहे.
जवाब देंहटाएं.... सारगर्भित अभिव्यक्ति !!!!
जवाब देंहटाएंआपके इस आलेख ने हमारी भी शुरूआती, ट्रेनिंग के दिनों की याद दिला दी. कुछ साथी - (कहें कि बहुतेरे) मलाईदार खंड में जाने के सपने देखते रहते थे और जुगाड़ भिड़ाने की फिराक में लगे रहते थे! पर, कुछ आपकी तरह के सच्चे, समर्पित लोग भी थे.
जवाब देंहटाएंइस बार रंग लगाना तो.. ऐसा रंग लगाना.. के ताउम्र ना छूटे..
जवाब देंहटाएंना हिन्दू पहिचाना जाये ना मुसलमाँ.. ऐसा रंग लगाना..
लहू का रंग तो अन्दर ही रह जाता है.. जब तक पहचाना जाये सड़कों पे बह जाता है..
कोई बाहर का पक्का रंग लगाना..
के बस इंसां पहचाना जाये.. ना हिन्दू पहचाना जाये..
ना मुसलमाँ पहचाना जाये.. बस इंसां पहचाना जाये..
इस बार.. ऐसा रंग लगाना...
(और आज पहली बार ब्लॉग पर बुला रहा हूँ.. शायद आपकी भी टांग खींची हो मैंने होली में..)
होली की उतनी शुभ कामनाएं जितनी मैंने और आपने मिलके भी ना बांटी हों...
बहुत ही अच्छा लगाकर पढ़कर और आपके विचार जानकर
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