समर्पित

इन्सानियत की सेवा करने वाले खाकी पहने पुलिस कर्मियों को जिनके साथ कार्य कर मैं इस पुस्तक को लिख पाया और
माँ को, जिन्होंने मुझे जिन्दगी की शुरुआत से ही असहाय लोगों की सहायता करने की सीख दी

रविवार, 13 दिसंबर 2009

सराहिए ‘खाकी में इंसान’ को...

आज इलाहाबाद में मेरी पुस्तक ‘खाकी में इन्सान’ पर परिचर्चा का आयोजन हुआ। मेरे मित्र और बैचमेट चन्द्र प्रकाश जो इलाहाबाद के पुलिस उपमहानिरीक्षक हैं, की पहल पर आयोजित इस कार्यक्रम में महात्मा गान्धी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूतिनारायण राय जी मुख्य अतिथि रहे और पुलिस मुख्यालय के अपर पुलिस महानिदेशक श्री एस.पी. श्रीवास्तव जी ने अध्यक्षता की। इस अवसर पर सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने इस ब्लॉग को प्रारम्भ करने का प्रस्ताव रखा जिसपर अमल करते हुए आज ही प्रथम पोस्ट का प्रकाशन कर रहा हूँ। पुस्तक का प्राक्कथन अविकल रूप में प्रस्तुत है:



यह मेरा सौभाग्य ही था कि हरियाणा के एक छोटे से गॉव से उठकर मुझे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में से एक आई०आई०टी० दिल्ली में पढ़ने का मौका मिला। गॉंव से आई०आई०टी० तक के सफर ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि भारतवर्ष दो परस्पर विरोधी धाराओं में विकसित हो रहा है। ऐसे में मैं कोई ऐसी नौकरी करना चाहता था, जिसमें देश सेवा के ज्यादा अवसर हों, जिसमें गरीबी में जी रहे करोड़ों लोगों की मदद करने का मौका मिल सके, देश के आम नागरिकों तक पहुँच कर उनकी समस्याओं का समाधान किया जा सके। मैं सीधे आम आदमी से जुड़ कर उनके लिए काम करना चाहता था। इन्हीं आदर्शों को लेकर मैंने इंजीनियरिंग कैरियर छोड़कर भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन की थी।

जब मैं अत्यन्त उत्साह भरा ट्रेनिंग के लिए राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी, मसूरी पहुँचा तो मुझे अपने आदर्शों के कई मिथक ढहते नजर आए। शुरू में तो मुझे एक धक्का सा लगा परन्तु मैं जल्दी सम्भल गया और मैंने अपने इरादों को कमजोर नहीं होने दिया। पुलिस सेवा के दौरान आई अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मैं अपने आदर्शों को बनाये रखने में कामयाब रहा और लोगों की मदद करने के अपने मूलभूत सिद्धान्तों पर चलने की कोशिश करता रहा। साथ ही मानवीय भावनाओं से प्रेरित अनेक कार्यों में से कुछ को अपनी डायरी में भी संजोता रहा... जिन्होंने अब इस पुस्तक का रूप ले लिया है।

अपने पूरे कैरियर में मेरी कोशिश रही है कि मैं प्रत्येक पीड़ित की समस्या को ध्यान से सुनू, उसकी पीड़ा को इन्सान के नजरिए से महसूस करूं और उसको थाने एवं कोट-कचहरी के अनावश्यक दॉंव-पेंचों में फंसने से बचाकर जल्दी से जल्दी न्याय दिलवाऊँ।

आज बीस साल की पुलिस सेवा के बाद, जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं और अपने कार्यों को आदर्शों के सापेक्ष रखता हूँ तो पाता हूं कि मेरा भारतीय पुलिस सेवा में आना निरर्थक नहीं रहा। मसूरी व इलाहाबाद के वे शुरूआती दिन मुझे आज भी याद हैं, जब मुझे लगता था कि कहीं मैं अभिमन्यु की तरह किसी चक्रव्यूह में तो नहीं फंस गया हूं? खाकी में बने रहकर इंसानियत बचाए रखी जा सकती है या नहीं? परन्तु धीरे-धीरे संशय के बादल छंटते चले गए और अब मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि पुलिस व्यवस्था के अन्दर रहते-रहते मैं बहुत से असहाय लोगों को न्याय दिलाने में कामयाब रहा हूँ, बहुत लोगों की जिन्दगी बदल पाया हूं, बहुत से अपराधियों एवं सफेदपोशों को दण्ड दिलाने में मेरी भूमिका रही है... तो यह अनुभूति आत्म-सन्तुष्टि प्रदान करती है।

ज्यों-ज्यों मैं पुलिस सेवा में आगे बढ़ता गया, मेरा यह विश्वास और भी पक्का होता चला गया कि व्यवस्था में कोई कमी नहीं है। सिस्टम तो मानवता की सेवा के लिए ही बना हे। वो तो सिस्टम को चलाने वाले लोग हैं जिन्होंने इसे निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु तोड़-मरोड़ डाला है। यदि अच्छी पुलिस व्यवस्था दी जाए तो बहुत से ऐसे लोगों को न्याय दिलाकर उनकी जिन्दगी में बदलाव लाया जा सकता है, जिनके पास न तो पैसा है तथापि मेरा मानना है कि अभी भी आम आदमी को न्याय दिला पाना असम्भव नहीं है। यदि ऊँचे पदों पर बैठे लोगों में दृढ़ इच्छा शक्ति हो, जज्बा हो... तो यही व्यवस्था, यही सिस्टम लोगों की मदद करने में बहुत ही कारगर सिद्ध हो सकता है।

पुलिस को बनाया गया है- समाज में सुरक्षा की भावना पैदा करने के लिए, अनुशासन स्थापित करने के लिए तथा समाज द्वारा बनाये गये मूल्यों को स्वीकार करने वाले बिगड़े हुए अपराधियों को दण्डित कराने और गरीबों-असहायों को न्याय दिलवाने के लिए। एक अच्छे पुलिस अधिकारी को अपना कोई भी कदम उठाने से पहले कुछ सवाल खुद से पूछने चाहए... क्या उसके कदम समाज के हित में हैं... क्या इससे पीड़ितों को मदद मिलेगी... क्या ऐसा करने से दुष्टों को दण्ड मिलेगा और अच्छे लोगों को राहत मिलेगी? यदि इन सवालों के उत्तर सकारात्मक हैं, वभी वह एक अच्दा पुलिस अधिकारी बन सकता है। जहॉं तक मैं समझता हूँ, एक अच्छे पुलिस अधिकारी में ईमानदारी, निष्पक्षता, परिश्रम, लगन, कर्तव्यनिष्ठा आदि गुण तो होने ही चाहिए... परन्तु इन सबसे उपर उसमें गरीबों की, पीड़ितों की, दबे हुए लोगों की मदद करने की दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए... मामले को गहराई तक जाकर देखने व समझने का विवेक होना चाहिए... इंसानियत के नजरिये से सोचने की तथा अपने अच्छे कृत्यों द्वारा लोगों का विश्वास जीतकर आम आदमी तक पहुंच बनाने की क्षमता होनी चाहिए।

इस किताब का उद्देश्य मेरे द्वारा किए गये कार्यों का लेखा जोखा प्रस्तुत करना नहीं है- इसका उद्देश्य तो यह दिखाना है कि कैसे हर समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से देखा व समझा जा सकता है, उसका समाधान किया जा सकता है और कैसे समाज का दृष्टिकोण पुलिस व्यवस्था के प्रति सकारात्मक बनाया जा सकता है। यह किताब पढ़कर जहॉं एक ओर कर्तव्यनिष्ठ पुलिस कर्मियों को जनता की जरूरतों के मुताबित अच्छे काम करने की प्रेरणा मिलेगी, वहीं दूसरी ओर आम आदमी को अपने अधिकारियों का अहसास होगा... वे रास्ता भटके पुलिस कर्मियों को बता सकेंगे कि पुलिस कैसे उनके हित में अच्छे कार्य भी कर सकती है। इस किताब के माध्यम से मैंने यह बताने की कोशिश की है कि यदि हम मानवीय संवेदनाओं को बनाए रखें एवं हर समस्या को मूलभूत इंसानियत के नजरिए से देखें तो कैसे पूरी व्यवस्था को और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है... पुलिस को कैसे आम आदमी की जरूरतों के प्रति और अधिक जिम्मेदार बनाया जा सकता है।

इस किताब में कुछ वास्तविक घटनाओं पर आधारित कहानियों के जरिए यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि अच्छी पुलिस व्यवस्था से सचमुच गरीब और असहाय की जिन्दगी में फर्क लाया जा सकता है। ये घटनाएं कहानियों के रूप में बयान की गयी हैं- जिनमें पुलिस के सामने आने वाली परिस्थितियों को चुनौतियां मानते हुए, उन्हें संवेदनशील-मानवीय हृदय की गहराइयों से निपटाया गया है जिनके बहुत सुखद परिणाम सामने आए हैं।

यह किताब न तो आत्मकथा है और न ही किसी प्रकार का अनुसंधान कार्य... इसका उद्देश्य किसी प्रकार का उपदेश भी देना नहीं है। किताब में वास्तविक घटनाओं का वर्णन इस उम्मीद के साथ किया गया है कि समाज में लोगों को एक अच्छा इन्सान बनने की प्रेरणा मिल सके। इन घटनाओं को काल्पनिकता का जामा पहना कर सनसनीखेज कहानियों में भी बदला जा सकता था, लेकिन अपने अनुभवों को सीधे प्रस्तुत करने का विकल्प मैने इसलिए चुना ताकि घटनाओं की प्रामाणिकता बनी रहे और पाठक के साथ मेरा सीधा संवाद स्थापित हो सके।

इस किताब को लिखे जाने में मेरे वरिष्ठ अधिकारियों तथा मेरे साथी एवं अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों की भी उतनी भी भूमिका है जितनी मेरी... क्योंकि उनके बिना मेरे द्वारा उठाये गये कदम संभव नहीं हो पाते।

किताब में कई स्थानों और व्यक्तियों के नाम बदल दिये गये हैं, कहीं-कहीं घटनाओं में भी थोड़ा-बहुत बदलाव कर दिया गया है जिससे कि किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचे तथा इसकी वस्तुनिष्ठता भी बनी रहे।

मुझे उम्मीद कि यह किताब पढ़कर आम आदमी अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु पुलिस तक जाने में संकोच नहीं करेगा। इसे पढ़कर लोगों को विश्वास होगा कि आखिर खाकी वर्दी पहने पुलिस वाले भी इंसान हैं... उनमें भी मानवीय संवेदनाओं से भरा दिल है... उनको भी एक अपहृत बच्चे को छुड़वाकर उसके मां-बाप को सौंपने में, एक भयभीत परिवार को वसूली-माफिया से छुटकारा दिलाने में, दबंगों द्वारा प्रताड़ित असहाय महिला को न्याय दिलाने में अथवा एक निर्दोष को जेल जाने से बचाने में अपार खुशी होती है... और शायद यही मनुष्य का सबसे आदिम और मूलभूत धर्म है।

मैं अपने प्रयास में कितना सफल हुआ हूं, इसे तो सुधी पाठक ही पढ़कर बताएंगे। पाठकों से मेरा आग्रह है कि वे अपनी निष्पक्ष राय भेजकर इस किताब का सही मूल्यांकन करेंगे। अंतत: कोई भी पुस्तक पाठकों के पास पहुँचकर उनकी ही तो रचना बन जाती है।

बड़ी उम्मीदों के साथ,

अशोक कुमार

13 टिप्‍पणियां:

  1. पुस्तक प्रकाशन और ब्लॉग शुरू करने की बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं

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  2. बधाई और स्वागत। अब यह बतायें कि पुस्तक मिलेगी कैसे। अच्छा लगा कि आपने अपने जीवन को किसी के लिए जीने लायक बनाने की कोशिश जारी रखी। जारी रखिये।

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  3. ब्लॉग शुरू करने की बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं....

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  4. पुस्तक प्रकाशन की बहुत बहुत बधाई और ब्लाग शुरू करने की भी। मुझे लगता है ये लोगों और खास कर जो लोग पोलिस मे हैं और अच्छे बन कर रहना चाहते हैं उनके लिये प्रेरणा स्त्रोत होगी। बधाई

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  5. अरे भाई ! किताब के लिए बहुत-बहुत बधाई !

    पर कुछ बेहद ज़ुरूरी सूचनाएं तो दीजिए कि कौन प्रकाशक है,कहां से मिलेगी और कितनी कीमत है .ताकि इच्छुक पाठक उसे मंगवा सके .

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  6. सर्वप्रथम तो हिन्दी में ब्लॉग प्रारम्भ करने के लिये बधाई! दूसरी बात यह कि, भारतीय पुलिस सेवा के एक अधिकारी रूप में मानवीय संवेदना की उदात्त भावनाओं से प्रेरित होकर अपने मानवीय सरोकारों का निर्वाह करना निश्चित ही सराहनीय है। पुस्तक तो बाद में पढ़ लूँगा लेकिन आपके प्राक्कथन से आपके संवेदनशील हृदय का अभास मिलता। यह आशा भी बलवती होती है कि शायद इस प्रतिष्ठित और अतिमहत्त्वपूर्ण सेवा के अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी इससे प्रेरणा लेकर संवेदनशीलता की ओर अग्रसर हों।
    अन्यथा न लें तो कहना चाहूँगा कि भा.प्र.से. और भा.पु.से. यहाँ तक कि भारतीय सेना भी स्वतंत्रता के ६२ वर्षों बाद भी ब्रिटिश साम्राज्यवादी संस्कारों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पायी है। ऐसे परिदृष्य में आप जैसे कुछ लोग भी हम जैसे जनसामान्य की उम्मीद को कायम रख सकते हैं। एक बार पुनः बधाई!
    आशा है आप से भविष्य में भी कुछ पढने सुनने को मिलता रहेगा।
    सादर

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  7. It is not easy to live one's true self. Still living beings are born live their lives and die without ever knowing why they are born and why they want to live as if moving in an endless blind tunnel being pushed by some unknown force.

    ... cutting short the whole gamut and coming directly to the services (ICS and IPS)people coming into these services do not really know why they joined and what they are supposed to do and what actually they desire to do. Some people may claim that they know what they want and why they have chosen the services as a launching pad for their goals (power, money and fame). If such people could write their experiences possibly that could be more enlightening for the lay reader but after retirement they are lost to the world for ever with all their experiences.

    It is only those people who seek a meaning to their lives find the circumstances too restrictive and opposed to their meaning of life. It is these people who succeed in their goals against all odds (may be partially) and they wish to express their gratitude through such publication of experiences. 'Khaki mein Insaan' is one of such expressions though it may also be only half the truth (as described by Commissioner, Raju) as the untold half of the truth may prove too damaging for the system and (elightening for the lay reader) that even if it is tried to be expressed it will possibly never see the light of the day

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  8. ब्लॉग शुरू करने की बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं ! isliye bhi ki is bahane sampark bana rahega.

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  9. पुलिस के मानवीय चेहरे को उभारने के लिए साधुवाद -हम तो अभी तक एक ही पुलिस साहित्यकार से परिचित थे -शहर में कर्फ्यू की क्रेडिट वाले विभूतिनारायण राय -अब एक से भले दो !
    बहुत स्वागत !

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  10. निसंदेह आपका प्रयास सफल होगा...इस शुभ अवसर के लिए आपको हार्दिक बधाई..

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  11. बधाई!!!!!!!!
    हमारी व्यवस्था में जैसा है उसके कारण मन तो नहीं होता कि हम माने कि आपका कृतित्व और व्यक्तित्व कोई विशेष परिवर्तन का वाहक बन सकेगा ?
    जाहिर है सबसे बड़ी आपकी उपलब्धि यही मानी जानी चाहिए कि आप अपनी साहित्यिक अभिरुचिओं को जीवित रख पाए !!

    बहुत बहुत स्वागत !

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  12. विनोद कुमार, द्वारका, दिल्ली22 जनवरी 2010 को 3:27 pm बजे

    एक रोचक विषय पर पुस्तक लिखने और आदरणीय माता जी द्वारा दिये गये उपदेशों तथा मानवीय मूल्यों को अपने जीवन में संजोयें रखने के लिये हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद।

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