पुलिस व्यवस्था प्राचीनकाल से ही भारतीय राजव्यवस्था का प्रमुख अंग रहा है । इस विषय को आधार बनाकर अनेक लेखकों ने समय-समय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। इस श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी 'खाकी में इन्सान' है । हालांकि पुलिस के विषय में यथार्थ भी है और मिथक भी । एक मिथक जो उसके बारे में जोड़ दिया गया है कि आतंकवादियों के आतंक से ज्यादा भय केवल पुलिस के रूप में है। कुछ संशय, कुछ भ्रम, कुछ अंधेरे, कुछ इस तरह के धूमिल से किनारे व कोने जिनसे हम लोग आकर्षित नहीं हैं, लेखक ने उससे हमे इस तरह से परिचय करवाया है कि लगता है कि वो पुलिस के एक ऐसे नायक पुरूष हैं जिनको पढ़ना अपने आपको जानना है । जिनको पढ़ना अपने समाज को जानना है ।
खाकी में इंसान को जब मैनें पढ़ना शुरू किया तो मैं रात को दो बजे तक उसको पढ़ती रही । रूद्रपुर की वादियों में, जो आतंकवाद का खौफ उसके खेती में, उसकी माटी में जबरन घुल गया था वहां पहुंचकर मुझे लगा कि अब मैं आगे नही पढ़ सकती । ऐसा नहीं है कि मुझे नींद आने लगी थी, नींद तो मेरी उड़ चुकी थी । लेखन इस तरह का है कि यह हमें पूरे दृश्यों के समीप ले जाता है। हमें लगता है कि हम एक चलचित्र के सामने बैठे हैं । लेखक हमें इतिहास में ले जाता है और स्थान तथा घटना के बारे में संपूर्णता से बताता है कि यह जगह कौन सी है, ये मिटटी क्या है, ये क्या थी, और अब जिस रूप में है कैसे बन गयी, क्यों बन गर्इ, ऐसा क्या हुआ जो हमारे समाज के असन्तुष्ट लोगों ने विभिन्न कारणों से अपने हाथों में हथियार उठा लिया और अब तक वो समझ नहीं पाये हैं कि अहिंसा के इस देश में जहां गांधी जी ने पग-पग पर ये सबक दिया कि अपने को जानना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है दूसरे को जानना । उसके मन के भाव को पहचानना । उस व्यकित के मन को पढ़ना। अपने किशोर वात्सल्य के कुछ सपने और कुछ प्रतिबद्धतायें लेकर वह चला होगा और जिन वजहों से वह सब टूटा, वो इतनी गहरार्इ में है कि सतह पर संवेदना की एक परत बिछी हुर्इ दिखार्इ देती है।
पुस्तक का हर पैराग्राफ एक केस स्टडी की तरह है । हर केस की तह में लेखक जाता है और गहरार्इ से उसका विश्लेषण करता है । फिर उसे बहुत सहज और सरल शब्दों में प्रस्तुत करता है । पुस्तक को पढ़ते हुये हम रूड़की, हरिद्वार, शाहजहांपुर, रूद्रपुर और फिर बाँदा पहुंच जाते हैं। वहां की पथरीली जमीन और पथरीले हो चुके जड़मनों के भीतर दाखिल होते हैं और पाते हैं कि कैसे प्रकृति की जटिलताओं के साथ वहां के रहवासियों के मन पथरीले हो गये हैं । लेखक ने हर पात्र के âदय की वाणी को जिस तरह से आगे लाया है और उसे जिस तरह से शब्द दिये हैं उससे लगता है कि उन्होनें अपने कार्यक्षेत्र को एक प्रयोगशाला बनाया, उसकी चुनौतियां उन्होनें स्वीकार की और उन चुनौतियों के साथ-साथ उनके भीतर का जो द्वंद है, वो एक अति संवेदनषील मनुष्य का द्वंद है । एक ऐसा युवा जो इंजीनियरिंग छोड़कर ब्यूरेक्रेसी की व्यवस्था का अंग बनने का निश्चय करता है । उसे अपनाने को आगे आता है, परीक्षा देता है, प्रषिक्षण प्राप्त करता है, लेकिन साथ-साथ उसके भीतर का द्वंद निरन्तर चलता रहता है । एक युवा के भीतर बैठी बेचैनी भी उसे समाज से विरासत में मिली है । अपने जीवन में कैसे संकल्पों को लेकर चला है, यह संकल्प अंत में पुस्तक के आधार वक्तव्य में आता है। वह बताता है कि किसी भी बच्चे का सबसे पहले पुलिस से जो वास्ता पडता है वह अपने माता पिता से पड़ता है । उसे उसके माता पिता अपने स्वभाव, व्यवहार और अनुषासन में पुलिस की तरह ही कठिन और जटिल महसूस होते हैं, क्योंकि वे बच्चे को बात-बात पर डांटते है, उसे बात-बात पर समझाते हैं कि उसे क्या करना चाहिए । लेखक का यह मानना कि बच्चे का पुलिस से पहला वास्ता अपने माता पिता के रूप में होता है क्योंकि वे उसे दिशाहीनता से बचाना चाहते हैं, यह अत्यन्त सुंदर और तर्कसंगत लगता है ।
लेखक ने अपने तबादलों के साथ बदली हुर्इ जगहों और वहां खुले नए मोर्चों के अनुसार कुछ ऐसी चुनौतीपूर्ण घटनाओं का चयन किया है। निश्चय ही, उनके बीस साल के कार्यकाल में बहुत सी ऐसी घटनायें हुयी होगीं। अलग-अलग क्षेत्रों से वह अलग-अलग समस्याओं को लेकर अपने रचना पाठ में हमसे रूबरू होते हैं । हमारा सामना करवाते हैं उन विसंगतियों से, शोषण, दलन से, कारूणिक मन:सिथतियों और सामाजिक दबावों से, जिनकी अराजक फसल काटने को विवष है कुछ निरपराध। इस सिलसिलें में शाहजहांपुर की एक औरत का दर्द उभर कर सामने आता है । पहली मुलाकात से ही लेखक उसे एक मनोवैज्ञानिक पाठ की भांति पढ़ना शुरू कर देता है । उसके चेहरे और हाव भाव से उन्हें अहसास होता है कि ये महिला कहीं न कहीं किसी बडे शोषण का शिकार हुयी है । और वह न्याय की फरियाद लेकर मेरे पास आयी है और उसे न्याय दिलाना मेरा कर्तव्य बनता है। उसी क्षण से उनके भीतर का द्वंद शुरू हो जाता है । इसी द्वंद के कारण वे केस स्टडी में जाते हैं और पाते हैंै कि समाज के एक ताकतवर बाहुबली द्वारा उसके परिवार को उसे वोट न देने के कारण ही सताया, धमकाया जा रहा है।
लेखक समाज को एक प्रयोगशाला बनाकर समाज के बीच से उन चीजों को उठाता है जो आज इस व्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहे हैं । इसे पढते हुये एक अनछूआ सत्य उभरकर सामने आता है कि व्यवस्था कहीं न कहीं प्रजा को हमेशा अनपढ़ ही बनाये रखने के लिए होती है ताकि व्यवस्थागत कमियां उजागर न हो सकें ।
इस किताब की सबसे बड़ी खूबी है, लेखक की डायरी से चुनकर प्रयुक्त की गर्इ कवितायें । लेख के आरम्भ में प्रयुक्त कवितायें कहीं न कहीं उस बेचैनी को प्रकट करती हैं जो लेखक के भीतर हैंं । चेतना की यह अभिव्यकित हमें गहरार्इ से छूती है और हमें पहले ही एक ऐसा ठिकाना दे देती है जिसके ऊपर जाकर हम खडे़ हो सकते हैं। हम लेखक के साथ अपना जुड़ाव महसूस करने लगते हैं और उसके साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों में जाते हैं ।
यह पुस्तक उन सभी प्रचारित भ्रांतियो को तोड़ती है, जो हमने पुलिस के बारे में गढ़ रखी है । पुलिस के विषय में यह आम धारणा है कि वह न्याय के लिए नहीं अन्याय के लिए बनी है। वहां से न्याय मिलना मुशिकल है, इसलिए सामान्य जन उन तक पहुंचने में भय खाता है। लेकिन लेखक की स्थापना है कि इस खाकी वर्दी में न्याय की उम्मीद करने वाला वह मनुष्य भी खडा है जो आपके बीच में है और न्याय दिलाने वाला मनुष्य भी इसमें समाहित है, जो समाज की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। यही संकल्प और संस्कार लेकर, निश्चय लेकर, प्रतिरोध की क्षमता लेकर वह पुलिस सेवा में आया है। वह आम पुलिस अधिकारियों से बिल्कुल अलग जन की सेवा के लिए निरन्तर तत्पर है । यह सिर्फ वह वाक्य भर नहीं, जो अखबारों में, पुलिस विज्ञापनों में देती है बलिक यह वह पुलिस संवेदना है, संकल्प है, नैतिकता है जो आपकी गली में, आपके मोहल्ले में, आपके साथ खड़ी होना चाहती है और खड़ी नजर आती है । इसके खामियाजे भी बहुत होते हैं । लेखक यह खामियाजा तब भुगतता है, जब वह रूद्रपुर के तबादले पर जाता है। पति-पत्नी गाड़ी में बैठकर भविष्य के सपने बुनते हैं । वहां नैनीताल होगा, पहाड़ी वादियां होगी और नैसर्गिक सुंदरता होगी, पर स्टेशन पर उतरते ही यथार्थ की पथरीली जमीन से टकराकर उसके सपने टूट जाते हैं । स्टेशन पर, पुलिस फोर्स का एक बड़ा कुनबा मौजूद देखकर उसका माथा ठनकता है कि क्या बात है, इतने लोग क्यों आए हैं। क्या उसकी सुरक्षा के लिए? फिर वह आगे बढता है। अपने घर पहुंचता है। घर में आत्मान्वेषण करता है। वह किन से असुरक्षित है? उनसे जो स्वयं कहीं न कहीं व्यवस्था से असंतुष्ट दिग्भ्रमित हो, हिंसा को अपने संघर्ष का हथियार बना बैठे हैं। जन सामान्य तक उनसे भयभीत है। उसे भटके हुए लोगों को ही रास्ते पर नहीं लाना है, जन सामान्य को भी उनकी हिंसक गतिविधियों से मुक्त करना है। उसके भीतर का मनुष्य जाग जाता है । वह बेचैन हो जाता है, पर जल्द ही संभलकर मनुष्यता की लड़ार्इ लड़ने के लिए वह अपने को संगठित करता है और जान हथेली पर लेकर कर्तव्य पथ पर अग्रसर हो जाता है।
पुस्तक पढ़ते समय पहले मुझे लगा कि लेखक, जो नायक भी है, अपने आप को यह सिद्ध करने के लिए कि वह कितना अच्छा पुलिस अधिकारी है, बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है, लेकिन जब हम आगे बढ़ते हैं, तब हमें महसूस होता है कि यह पुलिस अधिकारी सचमुच भारतीय समाज, उसके कायदे कानून और न्याय के विभिन्न पहलुओं के विषय में पूरी र्इमानदारी से विश्लेषण करता है । बड़ी ही साफगोर्इ से लेखक यह बताता है पुलिस का यह चरित्र हमें इम्पीरियल पुलिस से मिला है जो राजतंत्र के प्रति निष्ठावान थी । प्रजा के प्रति उसकी जवाबदेही न के बराबर थी। इस विषय में लेखक बधार्इ का पात्र है कि उसने सच कहने का साहस किया । इस क्रम में उसने आमजन के मानसिक बोध से भी हमारा परिचय करवाया है । वह मथुरा के एक गांव के धार्मिक आयोजन का जिक्र करता है, जहां आम जनता गोवर्धन परिक्रमा के लिये आयी हुर्इ है । यह वह गांव है जिसके विषय में आज से 600 वर्ष पूर्व कबीर ने कहा था साधो ये मुर्दो का गांव । यह वह गांव है, जहां के लोग किसी घटना पर विचलित नहीं होते हैं । किसी के साथ कुछ घट जाता है तो उन्हे लगता है कि यह हमारे साथ नहीं घटा है । यह मुर्दो का गांव है, मनुष्यों का नहीं । एक सड़क दुर्घटना के बाद दर्द से कराहते घायल पडे हुये लोगों की मदद के लिए वहां का एक भी आदमी आगे नही आता । लेखक मौके पर पहुंचता है और लोगों से मदद की अपील करते हुये कहता हैं कि इनके स्थान पर यदि आप घायल पडे हुए होते और आपके साथ भी ऐसा ही उपेक्षा भरा अमानवीय बर्ताव होता तो क्या होता ? इस क्षण लेखक के भीतर वही ऐतिहासिक कबीर समाये हुये थे जो अपने आप को भी नहीं बक्शता और मौका आने पर जनता को भी नहीं। लेखक उन्हें झकझोर कर कहता है कि आप जगे रहेंगे तो हम भी जगे रहेंगे । हम पुलिसवालों को जगाये रखने का दायित्व आपके ऊपर है ।
मुझे लगता है कि मसूरी में जिस पाठयक्रम और प्रशिक्षण के लिए अधिकारी जाते हैं । वहां प्रशिक्षण के दौरान वे इतिहास पढे, भूगोल पढे़ और देश भ्रमण के लिए भेजे जायें, परन्तु देश के दूसरे कोने में क्या हो रहा है, यह जानने के लिए इस पुस्तक को पाठयक्रम में अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए । साथ ही इसे विभिन्न भाषाओं में अनुवादित भी किया जाना चाहिए, ताकि अपनी पूरी संवेदनाओं को समेटे हुये, आमजन के मन में गहरार्इ से उतर सके, स्वयं उन्हें संवेदित कर सके।
मैं प्रकाशक को बधार्इ देती हूं कि लेखक के शब्दों को वे पुस्तक के रूप में हमारे सामने लायें हैं । साथ ही मैं आशा करती हूं कि लेखक के विचार सिर्फ पुस्तकीय पृष्ठ तक ही सीमित नहीं रहेंगे बलिक पुलिस सुधार के वाहक भी बनेंगे ।