समर्पित

इन्सानियत की सेवा करने वाले खाकी पहने पुलिस कर्मियों को जिनके साथ कार्य कर मैं इस पुस्तक को लिख पाया और
माँ को, जिन्होंने मुझे जिन्दगी की शुरुआत से ही असहाय लोगों की सहायता करने की सीख दी

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

इन्सान बने रहना … इतना मुश्किल तो नहीं?!

 

एक बँधी हुई लीक

और सामन्ती मर्यादा के गोल-गोल दायरे…

इन्हीं पर चलते हैं लोग

चलने की सीख देते हैं लोग!

 

किन्तु…

बँधी हुई लीक को तोड़ना-

सामन्ती मान-मर्यादाओं के दायरे से बाहर आना

और एक इन्सान के नजरिए से सोचना…

 

मेरा कहना है-

पुलिस की वर्दी में होते हुए भी

इन्सान बने रहना…

इतना मुश्किल तो नहीं ?।

(अशोक कुमार)

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

इलाहाबाद में ट्रेनिंग के शुरुआती अनुभव आँखें खोलने वाले थे…

 

चक्रव्यूह

राष्ट्रीय पुलिस अकादमी, हैदराबाद से ट्रेनिंग पूरी करने के बाद मेरी पहली पोस्टिंग सहायक पुलिस अधीक्षक प्रशिक्षणाधीन के रूप में इलाहाबाद में हुई।

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संगम नगरी इलाहाबाद को प्रयागराज के नाम से भी जाना जाता है। दो नदियों का संगम तो कई दूसरे प्रयागों में भी होता है जैसे देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि। किन्तु इलाहाबाद तीन नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर बसा हुआ शहर है, इसीलिए इसे प्रयागों का राजा प्रयागराज कहा जाता है। सरस्वती नदी का उल्लेख पुराणों में तो है किन्तु बाद में यह नदी विलुप्त हो गई। इलाहाबाद को कुम्भनगरी के रूप में भी जाना जाता है। बारह वर्ष में एक बार लगने वाला महाकुम्भ इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन एवं नासिक में हर तीन वर्षों के अन्तराल पर लगता है। इन सब में इलाहाबाद में लगने वाले महाकुम्भ का अलग ही महत्व है।

धार्मिक नगरी के अतिरिक्त इलाहाबाद शिक्षा और साहित्य के केन्द्र के रूप में भी विख्यात रहा है। यहाँ पर गंगानाथ झा, फिराक गोरखपुरी, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन, धर्मवीर भारती आदि शिक्षकों का आभामंडल हमेशा मौजूद रहा है। दूर-दूर से लोग यहाँ पर अध्ययन करने के लिए आते रहे हैं। इलाहाबाद सांस्कृतिक रूप से भी शास्त्रीय गायन, लोक गायन, शास्त्रीय नृत्य एवं लोक नृत्य की समृद्ध परम्पराओं का गढ़ रहा है। राजनीतिक रूप से भी इलाहाबाद आजादी के पूर्व के दिनों से ही देश की राजनीति के केन्द्र में रहा है। मोतीलाल नेहरू का आवास ‘आनन्द भवन’ आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के मुख्यालय के रूप में प्रसिद्ध रहा है और स्वतंत्राता के बाद भी जवाहर लाल नेहरू से लेकर वी. पी. सिंह तक कई प्रधानमंत्री या तो इलाहाबाद के रहने वाले थे या वहाँ पर शिक्षा ग्रहण किए हुए थे। चन्द्रशेखर आजाद ने यहीं पर देश की आजादी के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की कुर्बानी दे दी थी।

सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से नब्बे के दशक के शुरुआती वर्ष काफी उथल-पुथल भरे थे। एक तरफ मण्डल कमीशन, दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद... दोनों मुद्दों ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया था। चारों तरफ आन्दोलन ही आन्दोलन नज़र आते थे। ऐसी सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों में मैंने अपने पुलिस कैरियर की शुरुआत की। सबसे पहले हम लोगों को एस.एस.पी. कार्यालय से सम्बद्ध किया गया।

ट्रेनिंग के दौरान के अपने पुराने अनुभवों की अपेक्षा जो बात यहाँ सबसे अलग देखने में आयी, वो थी लोगों का लगातार शिकायतें लेकर आना और अपनी शिकायतों का निस्तारण ढूँढना। औसतन सौ से दो सौ आदमी इलाहाबाद पुलिस कार्यालय में प्रतिदिन अपनी समस्याएं लेकर आते थे। कुछ लोग नेताओं के साथ आते थे तो कुछ लोग वकीलों को साथ लेकर। निश्चय ही कुछ लोग ऐसे भी होते थे जो दरख्वास्त लेकर बिना किसी सहारे के आते थे। इन शिकायतों को ध्यान से देखने पर मुख्य रूप से जो बातें सामने आई वे थीं- किसी का मुकदमा नहीं लिखा जाना, किसी पर हमला हो जाने पर पुलिस को शिकायत करने पर भी पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही न करना, किसी के खिलाफ झूठा मुकदमा लिखा जाना, किसी को किसी मुकदमे में झूठा फँसा दिया जाना, किसी का मुकदमा लिखे जाने के बावजूद भी अपराधियों की गिरफ़्तारी न होना आदि-आदि। कुल मिलाकर ये शिकायतें या तो थानाध्यक्ष, चौकी इंचार्ज या हल्का प्रभारी द्वारा दिखाई गई पुलिस की निष्क्रियता सम्बन्धी होतीं या फिर पुलिस द्वारा की जाने वाली गलत कार्यवाही की।

इलाहाबाद बहुत बड़ा जनपद था जिसमें उस समय 44 थाने एवं 14 सर्किल थे। एक इतने बड़े जिले में जहाँ अधिकारियों को कानून-व्यवस्था की समस्याएं ही दिन भर सुलझानी होती हैं, उनके पास इतनी बड़ी संख्या में आने वाली शिकायतों को सुनने, उनकी गहराई तक जाने अथवा सुलझाने के लिए पर्याप्त समय निकाल पाना सम्भव नहीं हो पाता। अतः ये शिकायतें अधीनस्थ अधिकारियों को, जिनमें अपर पुलिस अधीक्षक, क्षेत्राधिकारी और थाना प्रभारी मुख्य रूप से होते थे, कार्यवाही हेतु प्रेषित कर दी जाती थीं। क्षेत्राधिकारी पुलिस विभाग में सबसे निचले दर्जे का राजपत्रित अधिकारी होता है। आम तौर पर थाना पुलिस के खिलाफ शिकायत वाले प्रार्थना पत्रों को जाँच करने हेतु क्षेत्राधिकारी को भेज दिया जाता था। परन्तु आश्चर्यजनक बात जिसने मेरा ध्यान आकृष्ट किया, वह यह थी कि क्षेत्राधिकारी द्वारा जांच खुद न करके जिस थाने के खिलाफ वह शिकायत होती थी, उसी थानाध्यक्ष को प्रार्थना पत्रों को जांच हेतु भेज दिया जाता था। थाने द्वारा जो जांच आख्या क्षेत्राधिकारी के माध्यम से भेजी जाती थी, उसमें अन्ततः पुलिस की पूर्व कहानी का ही उल्लेख होता था और शिकायतकर्ता की शिकायतों को झूठा या पेशबन्दी में दिया जाना बताकर जांच आख्या एस.एस.पी. कार्यालय तक आ जाती थी।

शिकायतों की ढेरों जांच फाइलों की गहराई में जाने का समय किसी के पास नहीं होता था और जांच आख्याओं के ये ढेर अंततः ‘सीन, फाइल’ नोट के साथ दबा दिये जाते थे।

लगभग एक माह तक कार्यालय में बैठने के बाद मैंने यही पाया कि बेचारे शिकायतकर्ता इधर से उधर मारे-मारे फिरते हैं और उनकी शिकायतों को ध्यान से नहीं सुना जाता है। दो ही स्थितियों में कार्यवाही होती- या तो कोई प्रभावशाली व्यक्ति बहुत ज्यादा जोर देकर अपनी बात को बार-बार कहता अथवा वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक द्वारा किसी शिकायत पर विशेष रूप से ध्यान दिये जाने के लिए कहा गया होता। अन्यथा शिकायत फाइलों के ढेर में दब कर रह जाती थी। इसके बावजूद शिकायतों को लेकर आने का लोगों का सिलसिला जारी रहता था। इसे गरीब जनता की नियति कहिए या न्याय पाने की उम्मीद। देखने में यह भी आता था कि महीना दो महीना चक्कर काटने के बाद परेशान होकर वे लोग इसे अपने भाग्य की नियति मानकर चुप बैठ जाते थे।

शिकायतों के निस्तारण का यह तरीका मुझे बिल्कुल भी न्यायसंगत नहीं लगा था। कुछ समय बाद मुझे थानाध्यक्ष की ट्रेनिंग हेतु फूलपुर पुलिस स्टेशन भेजा गया, जो इलाहाबाद से लगभग तीस किलोमीटर दूरी पर स्थित एक मंझले आकार का तहसील मुख्यालय है। आजादी के बाद फूलपुर में इफ़को जैसी एक-दो बड़ी फैक्ट्रियाँ लगाई गई थीं, इसके अलावा यह थाना पूरी तरह से ग्रामीण अंचल वाला था।

‘शहर में कर्फ़्यू’ जैसे उपन्यास के सुप्रसिद्ध लेखक विभूति नारायण राय मेरे पहले वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे। पुलिस की सेवा करते हुए एक बेहतर इंसान बने रहने और अपनी मनुष्यता को बनाए रखने के मेरे आदर्शों को उनसे बराबर बल मिलता रहा। उन्होंने मुझे थानाध्यक्ष की ट्रेनिंग में जाने से पहले यह सीख दी थी कि वहाँ नीचे के स्तर तक जाकर सीखना है और मुंशी के बस्ते पर भी बैठकर सीखना है। उन्होंने कहा था कि यदि अधिकारी बनकर तने रहोगे तो जिन्दगी भर कुछ नहीं सीख पाओगे। मैंने उनकी बात गाँठ बाँध ली थी। थाना फूलपुर में प्रारम्भ के चार-पाँच दिन मेरे लिए अत्यन्त हैरानी भरे रहे क्योंकि उन दिनों सुबह से शाम तक मैं थाने में बैठा रहता लेकिन कोई मुझसे मिलने नहीं आता था। मैंने सोचा, या तो यहाँ अपराध बहुत कम है, अथवा हैं ही नहीं! या फिर लोगों में आपसी झगड़े नहीं होते अथवा लोगों के मन में खाकी वर्दी पर से विश्वास उठ गया है और वे लोग थाने ही नहीं आते। मैंने यह भी सोचा कि हो सकता है कि यहाँ के लोगों में पुलिस का भय अत्यधिक व्याप्त हो और वे यहाँ कदम रखने में ही घबराते हों।

पांचवें दिन जब मैं पूरा दिन खाली बिताकर वापस लौट रहा था तो थाने के बाहर करीब पचास कदम की दूरी पर स्थित चाय की दुकान पर मुझे काफी भीड़ दिखाई दी। मैंने उत्सुकतावश वहाँ पर अपनी जीप रोकी और नीचे उतर कर एक वृद्ध आदमी से जानना चाहा कि यहाँ पर लोग क्यों इकट्ठे हैं? वृद्ध ने बताया कि वह थाने पर शिकायत लेकर आए हैं। वृद्ध ने आगे बताया कि इंस्पेक्टर साहब ने उनसे कहा है कि जब तक अन्दर ‘आईपीएस साहब’ बैठे हैं, तब तक कोई इधर न आए और तब तक सब लोग चाय की दुकान पर ही रुकें। ‘साहब जब थाने से चले जाएँगे, उसके बाद ही लोग थाने पर जाएँगे।’ मैं आश्चर्य के साथ उस व्यक्ति को देखता रह गया। अब जाकर मामला मेरी समझ में आया कि क्यों मेरे पास पिछले पाँच दिनों से कोई मिलने नहीं आया था।

मैंने इंसपेक्टर को बुलवाया और पूछा कि ऐसा उसने क्यों किया, तो उसका दो टूक जबाब था,

‘‘अरे साहब, आप तो राजा आदमी हैं। आई.पी.एस. अफसर को तो राजा की तरह ही रहना चाहिए। ये सब छोटे-मोटे काम तो हम लोगों पर ही छोड़ देने चाहिए।’’

उसने आगे कहा, ‘‘साहब, इनको यहाँ आकर मिलने से कुछ नहीं होने वाला है। ये लोग तो ऐसे ही आते रहते हैं। इनकी सुनेंगे तो आप भी परेशान हो जाएँगे। इनका तो धन्धा ही है खुद परेशान होना और दूसरों को परेशान करना।’’ उसने साथ में एक भद्दी-सी गाली भी ठोकी।

ऐसा नहीं था कि ऐसा पहली बार इसी इंसपेक्टर द्वारा किया गया हो। आम तौर पर कई अधिकारी इसी तरह अपनी ट्रेनिंग बिता देते हैं और अधीनस्थ अधिकारी ‘राजा साहब’ कहकर उनको चने के झाड़ पर चढ़ाये रखते हैं और अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। कुछ ही अधिकारी होते हैं जो नीचे तक अपनी पकड़ बना पाते हैं, ऐसे अधिकारियों को स्टाफ द्वारा ‘कड़क’ या ‘सख्त’ अधिकारी की संज्ञा दी जाती है। ‘राजा साहब’ की श्रेणी वाले अधिकारियों के कार्यकाल में नीचे का स्टाफ ज्यादा खुश रहता है, क्योंकि ऐसे अधिकारी न तो क्षेत्रा में जाते हैं, न अपराध की गहराई में जाते हैं और न ही अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा किए गए गलत कार्यों की तह तक जाते हैं। ऐसे अधिकारी वास्तविकता से पूरी तरह बेखबर रहते हैं। ऐसे में अधीनस्थ अधिकारियों को खुली छूट रहती है। साहब तो राजा आदमी हैं, जो काम न कर सिर्फ मौज करते हैं और उनके नीचे के भ्रष्ट अधिकारी असली राज करते हैं। जबकि उनके कार्यकाल में कर्तव्यनिष्ठ अधीनस्थ अधिकारियों को काम करने का मौका ही नहीं मिल पाता क्योंकि ‘राजा साहब’ चापलूस व भ्रष्ट अधीनस्थों से घिरे रहते हैं।

मैं उन सब लोगों को लेकर वापस थाने में आया जो चाय की दुकान पर इकट्ठा थे और एक-एक कर उन सभी की समस्याएं सुनीं। अस्सी प्रतिशत मामले तो मामूली बातों पर सामने आए छोटे-छोटे आपसी झगड़ों के थे, जिनका निपटारा दोनों पक्षों की बातों को ध्यानपूर्वक व धैर्यपूर्वक सुनकर वहीं पर किया गया। ऐसे सभी लोग थाना-परिसर में समझौता हो जाने के कारण खुशी-खुशी अपने घर चले गए। उनकी खुशी और कृतज्ञता को देखकर मुझे अच्छा लगा।

जब मैं थाने से वापस लौट रहा था तो जिज्ञासावश मैंने अपने हमराही पुलिस के सिपाही से उनके खुश होने का कारण पूछा। उसने मुझे बताया कि थाने का इंसपेक्टर दलाल के माध्यम से लोगों के मन में समस्या का खौफ पैदा करता था और फिर उन्हें सुलझाने का नाटक करके लोगों से मोटी रकम ऐंठता था। सिपाही ने बताया कि उसका तरीका कुछ इस तरह से होता था कि पहले एक पार्टी की शिकायत ली, उस शिकायत के आधार पर दूसरी पार्टी को थाने में उठाकर ले आए, फिर दूसरी पार्टी से पहली पार्टी के खिलाफ़ शिकायत ली, उसके आधार पर पहले वालों को भी उठा लाये और दोनों पार्टियों को जब छः-आठ घण्टे थाने में बैठा दिया जाता था, थक-हार कर उनको अपनी नादानी समझ में आ जाती थी और फिर दोनों पार्टियों का दलालों के माध्यम से समझौता कराकर व पैसा लेकर छोड़ दिया जाता था।

अगले कुछ दिनों में मुझे यह भी समझ में आया कि चाय की दुकान पर भीड़ को रोकने वाले थाने के दलाल ही होते थे। थाने की अपनी कार्यप्रणाली ऐसी होती थी कि आम आदमी थाने में सीधे घुसने की हिम्मत ही नहीं करता था। पहले तो संतरी को देखकर ही उसे डर लगने लगता था और फिर उसके बोलने के लहजे से तो उसकी रही-सही हिम्मत भी जवाब दे जाती थी। इसके ऊपर थाने के मुंशी की डाँट-डपट। पीड़ित व्यक्ति जब उन्हें किसी अपराध की सूचना देने जाता था तो उनसे इतने सवाल पूछे जाते थे कि पीड़ित पक्ष को लगता था कि जैसे उसने खुद ही अपराध कर डाला हो। इसीलिए लोग दलालों के बिना थाने के अन्दर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे।

उस दिन लोगों की समस्याओं की मुझे जो जानकारी मिली, उनमें दो मामले ऐसे भी थे, जो थाने पर बैठकर दोनों पक्षों को सुनकर नहीं निपट पाए। दोनों पक्ष खुद को सच्चा व दूसरे को झूठा बता रहे थे। इसलिए मैंने मौका-मुआयना करने का निर्णय लिया। दोनों मामलों से जुड़ी पार्टियों को अगले दिन मैंने सुबह थाने आने का समय दिया और दोनों पार्टियों को अपनी जीप में बैठाकर हमराह स्टाफ के साथ दोनों घटनाओं के मौके पर गया। एक मामला आँगन को लेकर विवाद का था। दोनों पक्ष उसे अपना बता रहे थे। मौके पर जाकर हमने दोनों पार्टियों के नक्शे देखे और आस-पास के लोगों से पूछा तो स्पष्ट था कि वह एक आदमी के कब्जे में लम्बे समय से चला आ रहा था और दूसरी पार्टी जबरदस्ती उसे कब्जाने का प्रयास कर रही थी।

कब्जा चाहने वाली पार्टी ने दलालों और प्रभावशाली लोगों के माध्यम से थाने में अपनी पकड़ बनाई हुई थी। मौके पर प्रस्तुत नक्शे व पूछताछ से यह स्पष्ट हो गया कि दूसरी पार्टी थाने से दबाव बनाकर जबरदस्ती उस आँगन पर अनधिकृत कब्जा करना चाह रही थी। मौका-मुआयना की वजह से कस्बे के लोगों के सामने दबंग पार्टी की पोल खुल गई थी। उसे भीड़ के सामने शर्मिन्दा होना पड़ा और स्वीकार करना पड़ा कि उसका दावा झूठा था। फूलपुर कस्बे के सीधे- सरल लोगों को पहली बार लगा कि पुलिस उनके घर पर आकर भी न्याय कर सकती है। यह उनके लिए एक नई बात थी। कुछ लोगों के साथ बातें करते हुए मैंने पाया कि उन्हें लगभग ऐसी अनुभूति हो रही थी कि मानो वे पुलिस व्यवस्था पर अपने खोये हुए विश्वास पर पुनर्विचार कर रहे हों।

दूसरे प्रकरण में मौके का निरीक्षण करने पर शिकायतकर्ता द्वारा बताया गया कि एक पक्ष द्वारा दूसरे के घर की दीवार तोड़ दी गई थी। मौके पर देखने पर पाया गया कि दीवार पूरी तरह क्षतिग्रस्त थी। जमीन का नक्शा देखने और आस-पास के लोगों से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि पहले वहाँ कोई दीवार थी ही नहीं, कुछ ही दिनों पहले थाने की मदद से वहाँ पर दीवार खड़ी की गई थी। जिस व्यक्ति ने वहाँ पर दीवार खड़ी की थी, जमीन उसी की थी, उसी के द्वारा यह भी शिकायत की गई कि दूसरी पार्टी ने थाने के प्रभाव से दीवार को तोड़ दिया था। इस प्रकरण की जड़ तक जाने पर स्पष्ट हुआ कि पहले एक पार्टी द्वारा थाना-पुलिस को पैसा देकर दीवार बनवाई गई थी, फिर दूसरी पार्टी से पैसा लेकर पुलिस ने ही दीवार को तुड़वा दिया था। इस प्रकार दोनों पक्षों से पैसा लेकर दोनों पक्षों के बीच दुश्मनी की आग और लड़ाई-झगड़े को हवा दी गई थी। मैंने मौके पर ही ग्राम प्रधान और गाँव के संभ्रान्त लोगों को बुलाकर दोनों पक्षों के मध्य सर्वमान्य समझौते की पेशकश की जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

इन दोनों घटनाओं के बारे में मैंने तत्काल एस.एस.पी. को भी अवगत कराया। एस.एस.पी. द्वारा प्रकरण की गम्भीरता को देखते हुए हल्का-प्रभारी को निलम्बित कर दिया गया व इंसपेक्टर को लाइन हाजिर कर दिया गया। इस घटना के बाद पूरे थाना क्षेत्रा में यह बात फैल गई कि पुलिस द्वारा स्वयं मौके पर जाकर तत्काल समस्याओं का निस्तारण कर दिया जाता है। इस कार्यवाही से एक अच्छी बात यह हुई कि गलत शिकायतों को लेकर लोगों का थाने में आना बन्द हो गया और थाने में दलालों का प्रवेश पूरी तरह प्रतिबन्धित कर दिया गया।

अब मुझे यह बात समझ में आयी कि इलाहाबाद पुलिस कार्यालय में करीब दो सौ लोग क्यों रोज शिकायत लेकर इकट्ठा हो जाते हैं। इस तरह के कुछ लोग हर थाने से जुड़े होते हैं, जिनको पैसे वालों या प्रभावशाली व्यक्तियों की थाने पर पकड़ के कारण थाना स्तर पर न्याय नहीं मिल पाता। कुछ लोगों को पुलिस कार्यालय जाने से भी न्याय नहीं मिल पाता है तो वह कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते रहते हैं। स्पष्ट था कि यदि थाना स्तर पर अच्छी पुलिसिंग हो जाय तो सीधे-सादे ग्रामीणों को दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें। उनकी समस्याओं को सुनकर तत्काल निपटाने से या पुलिस के प्रभाव से मौके पर ही समझौता करा देने से गाँव में अमन शांति बनाये रखी जा सकती है।

इसके बाद मैंने अपना ध्यान थाना क्षेत्रा में होने वाले छोटे-छोटे अपराधों पर दिया। अपराधियों की पूरी सूची बनाकर बारी-बारी से प्रत्येक गाँव के रजिस्टर न0-8 को लेकर दिन में ही हर एक अपराधी के घर पर पुलिस टीम को लेकर गया। रजिस्टर न0-8 थाने पर रखा जाने वाला प्रत्येक गांव का ऐसा रजिस्टर होता है जिसमें उस गाँव का पूरा ब्यौरा रहता है सम्भ्रान्त लोगों का भी और अपराधियों का भी। इसका क्षेत्र में बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा क्योंकि प्रो-एक्टिव पुलिसिंग का यह सबसे महत्वपूर्ण कदम है। यदि हम अपराधियों को चिन्ह्ति कर उनका पीछा करेंगे तो अपराधियों को यह मालूम रहेगा कि पुलिस की हम पर नजर है। ऐसी कार्यवाही से अपराधी क्षेत्र छोड़ कर भाग जाते हैं। प्रो-एक्टिव पुलिसिंग में पुलिस पहले से ही अपराधियों को चिह्नित कर उनका पीछा करती है तथा उनके खिलाफ़ कार्यवाही करती है, इससे अपराधों में कमी आ जाती है। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो सक्रिय अपराधी अपराध करते रहते हैं और पुलिस उनके पीछे दौड़ती रहती है।

इसी कड़ी में कुछ ऐसे लोगों के खिलाफ गुण्डा एक्ट की कार्यवाही की गई, जो अपने मोहल्ले या इलाके में छोटी-छोटी बातों में मारपीट करते थे या महिलाओं से छेड़खानी करते थे। इस तरह के लोगों को कहीं पर ‘दादा’, कहीं पर ‘गुण्डा’ व कहीं पर ‘भाई’ कहा जाता है। स्थानीय स्तर पर ऐसे उचक्कों का आतंक इस कदर होता है कि लोग इनकी शिकायत करने से कतराते हैं। लोग सोचते हैं कि प्रभावशाली लोगों के दबाव में इनका तो कुछ बिगड़ेगा नहीं, व्यर्थ में कीचड़ में पत्थर फैंकने से वे लोग ही परेशान होंगे। लोगों को यह भी भरोसा नहीं होता कि थाने द्वारा उनकी शिकायत पर उन उचक्कों के विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी। उनकी यह धारणा काफी हद तक सच भी है। मैंने ऐसे लोगों को चिन्हित कर उनके विरुद्ध गुण्डा एक्ट के अन्तर्गत जिला बदर करने हेतु कार्यवाही प्रारम्भ की। पंद्रह दिन में ही परिणाम सामने थे। अब लोगों का पुलिस पर विश्वास बढ़ गया था और उनके मन से थाने पर आने का डर समाप्त हो गया था। आम लोगों में चर्चा थी कि कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या लेकर बिना किसी रोक-टोक एवं बिना दलाल के थाने पर जा सकता है। गाँव एवं मौहल्लों के जिन अपराधियों के विरूद्व कार्यवाही की गई थी, उससे भी लोगों के मन में अपराधियों का डर खत्म हुआ और वे आगे आकर खुलकर अपने मौहल्ले के छोटे-बड़े सभी प्रकार के अपराधियों के सम्बन्ध में सूचना देने लगे।

कुल मिलाकर थाने पर हर किसी की समस्या ध्यान से सुनकर उसका विधिक निराकरण करने से लोगों में पुलिस की विश्वसनीयता बढ़ी थी। आम आदमी की पहुँच अधिकारी तक थी और उनकी शिकायतों पर तत्काल कार्यवाही होती थी। इस कार्यवाही के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि यदि पुलिस आसानी से हर किसी को उपलब्ध हो, अपनी संवेदनशीलता बनाए रखे, आम आदमी को पुलिस तक जाने में डर न लगे और पुलिस उनकी समस्याओं को सुनकर निष्पक्ष कार्यवाही करे तो निःसंदेह लोगों के मन में पुलिस के प्रति विश्वास जगेगा और उनके मन में यह धारणा मजबूत होगी कि पुलिस मूलतः उन्हीं लोगों की मदद के लिए बनी है।

फूलपुर की ट्रेनिंग से पहले कभी-कभी मुझे लगता था कि कहीं मैं अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में तो नहीं फँस गया हूँ, जहाँ सारे रास्ते आपस में उलझ गए हैं और मेरे पास बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है... ‘अर्द्धसत्य’ फिल्म के नायक की तरह कहीं कुंठा तो मुझे नहीं घेर लेगी? कहीं मुझे सारी जिंदगी एक घुटन भरे माहौल में तो नहीं बितानी पड़ेगी? मुझे लगता था कि मैं एक चैराहे पर खड़ा कर दिया गया हूँ और कुछ लोग मेरे पाँवों को अपने क्रूर पंजों से दबोचे मुझे घेरे हुए हैं। ये सब मेरे परिचित चेहरे हैं... कुछ तो मेरे ही विभाग के हैं, कुछ समाज के संभ्रांत विशिष्ट लोग हैं और कुछ लोग अपने कंधों पर रुपयों से भरी भारी थैलियाँ लिए हैं। लेकिन फूलपुर के अनुभव के बाद मुझे विश्वास हो गया कि यदि मामले की तह तक जाकर, इंसानियत के नजरिये से सोचते हुए संवेदनशील मन से एवं निष्पक्ष भाव से अच्छे लोगों के प्रति मित्रवत व बदमाशों के प्रति कठोरता से व्यवहार कर, पुलिस और जनता के बीच समन्वय स्थापित कर पुलिसिंग की जाय तो जटिल से जटिल चक्रव्यूह को भेदना और उससे बाहर निकलना मुश्किल नहीं है।

(अशोक कुमार)

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

इलाहाबाद में तो कमाल हो गया…।

 

सीपी ने इलाहाबाद में मेरी किताब पर चर्चा के लिए जो इन्तजाम किया था उसका प्रभाव अगले दिन की अखबारी रिपोर्टो को देखकर  बखूबी किया जा सकता है। सी.पी. यानि चन्द्र प्रकाश, इलाहाबाद के डी.आई.जी. जो जिले के पुलिस प्रमुख हैं और मेरे मित्र है। हमारा बैच एक ही है। यह एक सुखद संयोग ही है कि एक जमाने में मैं इलाहाबाद में ट्रेनिंग के लिए तैनात था और सी.पी. लखनऊ में थे। तब मैने इन्हें कुम्भमेला घूमने के लिए बुलाया था। आज ये इलाहाबाद के पुलिस कप्तान हैं और मुझे इनके सौजन्य से इस गौरवशाली शहर में अपनी पुस्तक पर परिचर्चा के साहित्यिक कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला। श्री विभूति नारायण राय जी उस समय इलाहाबाद के एस.एस.पी. हुआ करते थे। इन्होंने तब मुझे ट्रेनिंग दी थी, और आज एक विश्वविद्यालय के कुलपति और प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में मेरी पुस्तक पर परिचर्चा के इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बने।

इस परिचर्चा की खबरें स्थानीय अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित कीं। प्रस्तुत है इलाहाबाद से प्रकाशित समाचारों का संकलन। समाचारों को अविकल पढ़ने के लिए उन चित्रों पर क्लिक करिए।

दैनिक जागरण, १४.१२.०९दैनिक जागरण 

हिन्दुस्तान, इलाहाबाद १४.१२.०९हिन्दुस्तान

यूनाइटेड भारत, इलाहाबाद १४.१२.०९ यूनाइटेड भारत

डेली न्यूज एक्टीविस्ट १४.१२.०९डेली न्यूज एक्टीविस्ट 

I-Next, इलाहाबाद १४.१२.०९I-Next (आई-नेक्स्ट) 

आशा है आप सबको यह प्रस्तुति पसन्द आएगी।

(अशोक कुमार)

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

खाकी में इंसान की चर्चा अखबारों में…

 

पुस्तक के प्रकाशन के बाद २३ नवम्बर को उत्तराखण्ड के मुख्य मन्त्री रमेश पोखरियाल निशंक ने देहरादून में इसका विमोचन किया। जिसकी खबरें सभी अखबारों ने प्रकाशित की। टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के देहरादून प्लस संस्करण में २९ नवम्बर को अन्जली नौरियाल की समीक्षा प्रकाशित हुई। इलाहाबाद में पुस्तक पर परिचर्चा का आयोजन हुआ। वहाँ के समाचार पत्रों में भी इसकी चर्चा हुई। प्रस्तुत है अखबारी कतरनें जो जल्दबाजी में जुटायी जा सकीं हैं। उत्तराखण्ड से स्थानान्तरण के बाद दिल्ली में शिफ़्ट करने की आपाधापी में अभी इतना ही:

(पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें।)

२३ नवम्बर,२००९ विमोचन अमर उजाला: देहरादून २३ नवम्बर,२००९

टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में समीक्षा टाइम्स ऑफ़ इण्डिया: दून प्लस: २९ नवम्बर, २००९

डेली न्यूज एक्टीविस्ट, इलाहाबादडेली न्यूज एक्टीविस्ट, इलाहाबाद: १४ दिसम्बर,२००९ 

शीघ्र ही पुस्तक के पाठ धारावाहिक के रूप में पोस्ट किये जाएंगे।

(अशोक कुमार)

रविवार, 13 दिसंबर 2009

सराहिए ‘खाकी में इंसान’ को...

आज इलाहाबाद में मेरी पुस्तक ‘खाकी में इन्सान’ पर परिचर्चा का आयोजन हुआ। मेरे मित्र और बैचमेट चन्द्र प्रकाश जो इलाहाबाद के पुलिस उपमहानिरीक्षक हैं, की पहल पर आयोजित इस कार्यक्रम में महात्मा गान्धी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूतिनारायण राय जी मुख्य अतिथि रहे और पुलिस मुख्यालय के अपर पुलिस महानिदेशक श्री एस.पी. श्रीवास्तव जी ने अध्यक्षता की। इस अवसर पर सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने इस ब्लॉग को प्रारम्भ करने का प्रस्ताव रखा जिसपर अमल करते हुए आज ही प्रथम पोस्ट का प्रकाशन कर रहा हूँ। पुस्तक का प्राक्कथन अविकल रूप में प्रस्तुत है:



यह मेरा सौभाग्य ही था कि हरियाणा के एक छोटे से गॉव से उठकर मुझे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी संस्थानों में से एक आई०आई०टी० दिल्ली में पढ़ने का मौका मिला। गॉंव से आई०आई०टी० तक के सफर ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि भारतवर्ष दो परस्पर विरोधी धाराओं में विकसित हो रहा है। ऐसे में मैं कोई ऐसी नौकरी करना चाहता था, जिसमें देश सेवा के ज्यादा अवसर हों, जिसमें गरीबी में जी रहे करोड़ों लोगों की मदद करने का मौका मिल सके, देश के आम नागरिकों तक पहुँच कर उनकी समस्याओं का समाधान किया जा सके। मैं सीधे आम आदमी से जुड़ कर उनके लिए काम करना चाहता था। इन्हीं आदर्शों को लेकर मैंने इंजीनियरिंग कैरियर छोड़कर भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन की थी।

जब मैं अत्यन्त उत्साह भरा ट्रेनिंग के लिए राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी, मसूरी पहुँचा तो मुझे अपने आदर्शों के कई मिथक ढहते नजर आए। शुरू में तो मुझे एक धक्का सा लगा परन्तु मैं जल्दी सम्भल गया और मैंने अपने इरादों को कमजोर नहीं होने दिया। पुलिस सेवा के दौरान आई अनेक विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मैं अपने आदर्शों को बनाये रखने में कामयाब रहा और लोगों की मदद करने के अपने मूलभूत सिद्धान्तों पर चलने की कोशिश करता रहा। साथ ही मानवीय भावनाओं से प्रेरित अनेक कार्यों में से कुछ को अपनी डायरी में भी संजोता रहा... जिन्होंने अब इस पुस्तक का रूप ले लिया है।

अपने पूरे कैरियर में मेरी कोशिश रही है कि मैं प्रत्येक पीड़ित की समस्या को ध्यान से सुनू, उसकी पीड़ा को इन्सान के नजरिए से महसूस करूं और उसको थाने एवं कोट-कचहरी के अनावश्यक दॉंव-पेंचों में फंसने से बचाकर जल्दी से जल्दी न्याय दिलवाऊँ।

आज बीस साल की पुलिस सेवा के बाद, जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं और अपने कार्यों को आदर्शों के सापेक्ष रखता हूँ तो पाता हूं कि मेरा भारतीय पुलिस सेवा में आना निरर्थक नहीं रहा। मसूरी व इलाहाबाद के वे शुरूआती दिन मुझे आज भी याद हैं, जब मुझे लगता था कि कहीं मैं अभिमन्यु की तरह किसी चक्रव्यूह में तो नहीं फंस गया हूं? खाकी में बने रहकर इंसानियत बचाए रखी जा सकती है या नहीं? परन्तु धीरे-धीरे संशय के बादल छंटते चले गए और अब मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि पुलिस व्यवस्था के अन्दर रहते-रहते मैं बहुत से असहाय लोगों को न्याय दिलाने में कामयाब रहा हूँ, बहुत लोगों की जिन्दगी बदल पाया हूं, बहुत से अपराधियों एवं सफेदपोशों को दण्ड दिलाने में मेरी भूमिका रही है... तो यह अनुभूति आत्म-सन्तुष्टि प्रदान करती है।

ज्यों-ज्यों मैं पुलिस सेवा में आगे बढ़ता गया, मेरा यह विश्वास और भी पक्का होता चला गया कि व्यवस्था में कोई कमी नहीं है। सिस्टम तो मानवता की सेवा के लिए ही बना हे। वो तो सिस्टम को चलाने वाले लोग हैं जिन्होंने इसे निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु तोड़-मरोड़ डाला है। यदि अच्छी पुलिस व्यवस्था दी जाए तो बहुत से ऐसे लोगों को न्याय दिलाकर उनकी जिन्दगी में बदलाव लाया जा सकता है, जिनके पास न तो पैसा है तथापि मेरा मानना है कि अभी भी आम आदमी को न्याय दिला पाना असम्भव नहीं है। यदि ऊँचे पदों पर बैठे लोगों में दृढ़ इच्छा शक्ति हो, जज्बा हो... तो यही व्यवस्था, यही सिस्टम लोगों की मदद करने में बहुत ही कारगर सिद्ध हो सकता है।

पुलिस को बनाया गया है- समाज में सुरक्षा की भावना पैदा करने के लिए, अनुशासन स्थापित करने के लिए तथा समाज द्वारा बनाये गये मूल्यों को स्वीकार करने वाले बिगड़े हुए अपराधियों को दण्डित कराने और गरीबों-असहायों को न्याय दिलवाने के लिए। एक अच्छे पुलिस अधिकारी को अपना कोई भी कदम उठाने से पहले कुछ सवाल खुद से पूछने चाहए... क्या उसके कदम समाज के हित में हैं... क्या इससे पीड़ितों को मदद मिलेगी... क्या ऐसा करने से दुष्टों को दण्ड मिलेगा और अच्छे लोगों को राहत मिलेगी? यदि इन सवालों के उत्तर सकारात्मक हैं, वभी वह एक अच्दा पुलिस अधिकारी बन सकता है। जहॉं तक मैं समझता हूँ, एक अच्छे पुलिस अधिकारी में ईमानदारी, निष्पक्षता, परिश्रम, लगन, कर्तव्यनिष्ठा आदि गुण तो होने ही चाहिए... परन्तु इन सबसे उपर उसमें गरीबों की, पीड़ितों की, दबे हुए लोगों की मदद करने की दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए... मामले को गहराई तक जाकर देखने व समझने का विवेक होना चाहिए... इंसानियत के नजरिये से सोचने की तथा अपने अच्छे कृत्यों द्वारा लोगों का विश्वास जीतकर आम आदमी तक पहुंच बनाने की क्षमता होनी चाहिए।

इस किताब का उद्देश्य मेरे द्वारा किए गये कार्यों का लेखा जोखा प्रस्तुत करना नहीं है- इसका उद्देश्य तो यह दिखाना है कि कैसे हर समस्या को मानवीय दृष्टिकोण से देखा व समझा जा सकता है, उसका समाधान किया जा सकता है और कैसे समाज का दृष्टिकोण पुलिस व्यवस्था के प्रति सकारात्मक बनाया जा सकता है। यह किताब पढ़कर जहॉं एक ओर कर्तव्यनिष्ठ पुलिस कर्मियों को जनता की जरूरतों के मुताबित अच्छे काम करने की प्रेरणा मिलेगी, वहीं दूसरी ओर आम आदमी को अपने अधिकारियों का अहसास होगा... वे रास्ता भटके पुलिस कर्मियों को बता सकेंगे कि पुलिस कैसे उनके हित में अच्छे कार्य भी कर सकती है। इस किताब के माध्यम से मैंने यह बताने की कोशिश की है कि यदि हम मानवीय संवेदनाओं को बनाए रखें एवं हर समस्या को मूलभूत इंसानियत के नजरिए से देखें तो कैसे पूरी व्यवस्था को और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है... पुलिस को कैसे आम आदमी की जरूरतों के प्रति और अधिक जिम्मेदार बनाया जा सकता है।

इस किताब में कुछ वास्तविक घटनाओं पर आधारित कहानियों के जरिए यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि अच्छी पुलिस व्यवस्था से सचमुच गरीब और असहाय की जिन्दगी में फर्क लाया जा सकता है। ये घटनाएं कहानियों के रूप में बयान की गयी हैं- जिनमें पुलिस के सामने आने वाली परिस्थितियों को चुनौतियां मानते हुए, उन्हें संवेदनशील-मानवीय हृदय की गहराइयों से निपटाया गया है जिनके बहुत सुखद परिणाम सामने आए हैं।

यह किताब न तो आत्मकथा है और न ही किसी प्रकार का अनुसंधान कार्य... इसका उद्देश्य किसी प्रकार का उपदेश भी देना नहीं है। किताब में वास्तविक घटनाओं का वर्णन इस उम्मीद के साथ किया गया है कि समाज में लोगों को एक अच्छा इन्सान बनने की प्रेरणा मिल सके। इन घटनाओं को काल्पनिकता का जामा पहना कर सनसनीखेज कहानियों में भी बदला जा सकता था, लेकिन अपने अनुभवों को सीधे प्रस्तुत करने का विकल्प मैने इसलिए चुना ताकि घटनाओं की प्रामाणिकता बनी रहे और पाठक के साथ मेरा सीधा संवाद स्थापित हो सके।

इस किताब को लिखे जाने में मेरे वरिष्ठ अधिकारियों तथा मेरे साथी एवं अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों की भी उतनी भी भूमिका है जितनी मेरी... क्योंकि उनके बिना मेरे द्वारा उठाये गये कदम संभव नहीं हो पाते।

किताब में कई स्थानों और व्यक्तियों के नाम बदल दिये गये हैं, कहीं-कहीं घटनाओं में भी थोड़ा-बहुत बदलाव कर दिया गया है जिससे कि किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचे तथा इसकी वस्तुनिष्ठता भी बनी रहे।

मुझे उम्मीद कि यह किताब पढ़कर आम आदमी अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु पुलिस तक जाने में संकोच नहीं करेगा। इसे पढ़कर लोगों को विश्वास होगा कि आखिर खाकी वर्दी पहने पुलिस वाले भी इंसान हैं... उनमें भी मानवीय संवेदनाओं से भरा दिल है... उनको भी एक अपहृत बच्चे को छुड़वाकर उसके मां-बाप को सौंपने में, एक भयभीत परिवार को वसूली-माफिया से छुटकारा दिलाने में, दबंगों द्वारा प्रताड़ित असहाय महिला को न्याय दिलाने में अथवा एक निर्दोष को जेल जाने से बचाने में अपार खुशी होती है... और शायद यही मनुष्य का सबसे आदिम और मूलभूत धर्म है।

मैं अपने प्रयास में कितना सफल हुआ हूं, इसे तो सुधी पाठक ही पढ़कर बताएंगे। पाठकों से मेरा आग्रह है कि वे अपनी निष्पक्ष राय भेजकर इस किताब का सही मूल्यांकन करेंगे। अंतत: कोई भी पुस्तक पाठकों के पास पहुँचकर उनकी ही तो रचना बन जाती है।

बड़ी उम्मीदों के साथ,

अशोक कुमार