पुलिस: मिथक और यथार्थ
दरवाजे पर खड़ा संतरी सर्दी-गर्मी और बरसात सब भुलाकर ... खड़ा रहता है दिन भर बन्दूक ताने ठोकता सलाम आने-जाने वाले साहबों को ।
काश! साहब लोग समझ पाते उसकी नीरस व उबाऊ जिन्दगी को उसकी जिजीविषा की पीड़ा को ।
काश ! साहब लोग उसकी जगह खड़े होते सिर्फ कुछ पल... और देखते ... अपने अहं को उसके स्तर पर लाकर !
(“मेरी डायरी” से 8 मार्च, 1990 ) |
पुलिस व्यवस्था समाज को सुरक्षा और न्याय प्रदान करने वाली प्रमुख प्रशासनिक व्यवस्था है। पुलिस की जरूरत तो घर जैसी छोटी इकाई में पड़ती है। माँ-बाप हमारे पहले पुलिस अधिकारी होते हैं। कभी-कभी वो भी अपने कायदे-कानून थोपते प्रतीत होते हैं- परन्तु बाद में समझ में आता है कि ऐसा वो हमारे हित में ही करते थे। पुराने जमाने में जब संयुक्त परिवार होते थे तो परिवार का मुखिया भी एक बड़ा पुलिस अधिकारी होता था जो कुनबे के कायदे-कानून के हिसाब से संयुक्त परिवार को चलाता था - एवं जरूरत पड़ने पर उसकी सुरक्षा योजना भी बनाता था। स्कूल-कालेजों के शिक्षक भी तो एक प्रकार से पुलिस वाला काम ही करते हैं, हमें अनुशासन में रहना सिखाते हैं और अनुशासन तोड़ने वालों को दण्डित करते हैं। परम्परागत भारतीय समाज में जो काम समाज के बड़े -बूढ़े और पढ़े-लिखें लोग करते थे, उन्हें पूरा करने की दरकार आज पुलिस से की जाती है।
आज के युग में समाज के हर आदमी का अनिवार्य रूप से पुलिस से पाला पड़ता है। शहरी जिन्दगी में तो घर से निकल कर सड़क पर आते ही ट्रैफिक पुलिस से सामना शुरू हो जाता है। कोई अप्रिय घटना घटित होती है तो तुरन्त पुलिस की याद आती है। कोई नया, अप्रत्याशित प्रसंग आड़े आता है तो भी पुलिस का स्मरण आता है। जाहिर है कि जब परम्परागत संबल अप्रासंगिक हो गये हों, ऐसे में नए संबल के रूप में पुलिस के प्रति लोगों की अपेक्षाओं और उनके दृष्टिकोण में भी फर्क आना ही था । इसलिए पुलिस के बारे में ढेर सारे किस्से-कहानियॉ प्रचलित होते हैं- जिनमें से कुछ सत्य होते हैं तो कुछ एकदम मिथ्या।
आजकल पुलिस की कार्यशैली पर बहुत फिल्में बनी हैं। आम आदमी के मन में पुलिस की जो छवि होती है, उसमें काफी भूमिका इन फिल्मों की भी होती है । फिल्मों ने पुलिस की ऐसी छवि बनायी है कि- ''पुलिस हमेशा लेट पहुँचती है ''- यह पूर्णतया सच नहीं है- फिल्मों में तो निर्देशक पुलिस को लेट पहुँचाते है क्योंकि इसमें मुख्य भूमिका तो नायक को करनी होती है- अत: नायक की भूमिका पूरी होने पर ही पुलिस को पहुँचाया जाता है। यदि पुलिस पहले पहुँच गयी तो नायक बेचारा किस बात का नायक रहेगा। पुलिस कोई हर जगह तो मौजूद हो नहीं सकती-घटना की सूचना मिलने पर ही पुलिस घटना स्थल के लिए चलती है- सूचना मिलने पर कितनी देर में पुलिस पहुँचती है- यही उसकी दक्षता का पैमाना है- फिर भी मेरा मानना है कि आधुनिक उपकरणों एवं वाहनों की बढ़ती उपलब्धता के कारण पुलिस के रिएक्शन टाइम व रिस्पॉन्स टाइम में सुधार हुआ है।
कई बार लोगों को कहते हुए सुना जाता है कि '' पुलिस अपराधियों से मिली होती है- पुलिस ही अपराध करवाती है''। हो सकता है इन बातों में कुछ हद तक सच्चाई हो। परन्तु सामान्यत: कोई भी पुलिस अधिकारी जानबूझ कर अपराध नही करवाता। अपराध होने पर उसे जनता का, उच्च अधिकारियों का तथा मीडिया का कोप-भाजन बनना पड़ता है। इसलिए यह सोच मिथ्या है। पर कुछ हद तक सच इसलिये कहा जा सकता है कि छोटे-मोटे मामलों में या -भ्रष्टाचार के कारण कभी-कभी पुलिस अपराधियों के प्रति नरम दिखाई देती है या उनके बगल में खड़ी दिखाई देती है- जिससे अन्तत: अपराध को बढ़ावा मिलता है। परन्तु इस बात में सौ प्रतिशत सच्चाई है कि पुलिस अपराध कभी खुद नहीं करवाती है।
कई लोग कहते हैं '' पुलिस सब बदमाशों को जानती है- वो चाहे तो मिनटों में चोरों-डकैतों को पकड़ सकती है...'' यह सोच भी सही नहीं है। हर पुलिस अधिकारी अपने क्षेत्र में घटित अपराध का शीघ्रातिशीघ्र अनावरण करना चाहता है। यह उसकी कार्यदक्षता है कि वह कितनी जल्दी ये सब कर पाता है। कई बार भाग्य, नियति एवं इत्तेफ़ाक की भी बात होती है- कठिन से कठिन केस कभी-कभी बहुत जल्द सुलझ जाते हैं और बहुत सीधे-सरल केस भी अत्यधिक मेहनत के बावजूद अनावृत नहीं हो पाते हैं। इसलिए पुलिस को लेकर ऐसी धारणा भी आधारहीन है।
पुलिस के बारे में लोगों की एक आम धारणा यह भी है कि पुलिस अत्यधिक भ्रष्ट है, जो पूर्णत: सत्य नहीं है। पुलिस भी समाज का ही एक अंग होती है, बल्कि समाज का ही आइना होती है। समाज से ही पुलिस कर्मी आते हैं और समाज में ही डयूटी करते है इसलिये सामाजिक गतिविधियों से वह अछूते नहीं रह पाते हैं । चॅूकि भारतीय समाज विकासशीलता के दौर से गुजर रहा है, ऐसे दौर में भ्रष्टाचार समाज में काफी हद तक व्याप्त रहता है। अन्य विकासशील देशों की भाँति ही हमारे देश में भी भ्रष्टाचार समाज में व्याप्त है। परन्तु पुलिस सबसे अधिक भ्रष्ट है यह बात बिल्कुल भी सत्य नहीं है। ऐसे बहुत से विभाग हैं जो अत्यधिक भ्रष्ट हैं किन्तु वहाँ पर सरकारी धन की बन्दरबाट होती है। यहाँ बड़े लोगों द्वारा बड़े स्तर का भ्रष्टाचार किया जाता है, जहाँ लाखों और करोड़ों के खेल-खेले जाते हैं। चॅूकि इसमें रिश्वत देने वाले व लेने वाले दोनों का फायदा होता है और क्षति सरकार की होती है, आम आदमी को इससे सरोकार नहीं होता है। पुलिस की तरह इन लोगों की सीधी सामाजिक जवाबदेही न होने के कारण भ्रष्टाचार का संदेश जनता तक नहीं पहुँच पाता है। जबकि पुलिस में जो भ्रष्टाचार है, वह बहुत छोटे दर्जे का है, भारी धनराशि का नहीं है। परन्तु अफसोस इस बात का है कि यह भ्रष्टाचार पीड़ित आदमी से किया जाता है। चोरी, डकैती, लूट में मुन्शी जी द्वारा रिपोर्ट दर्ज कराने पर मांगी जाने वाली राशि हो या फिर छोटे-छोटे यातायात से सम्बन्घित भ्रष्टाचार जिसमें चालान न करके 50-100 रूपये लेने की बात आती है, दोनों मामलों में गरीब आदमी अपना पेट काटकर पैसा देता है, इसलिये उसे खलता है। खुली सड़क पर ली गई धनराशि पीड़ित व्यक्ति अथवा आम आदमी से ली जाती है जो सबको दिखती है इसलिये चर्चा का मुद्दा बन जाती है तथा समाज में उसे सबसे अधिक भर्त्सना सहनी पड़ती है। किन्तु जो भारी भ्रष्टाचार बन्द कमरों में होता है, वह दिखता नहीं है, इसलिये आम जनता में उसकी चर्चा कम होती है।
पुलिस में ब्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में यह भी कहा जाता है कि पैसा ऊपर के अधिकारियों तक जाता है, जो सही नहीं है। जब पुलिस कर्मी सड़क पर भ्रष्टाचार करता है तो अपने को सही ठहराने के लिये इस तरह का प्रचार करता है। अधिकारी स्तर पर बहुत ही कम ऐसे लोग होते हैं, जो इस तरह के निकृष्टतम् भ्रष्टाचार में लिप्त होते हों और अपने अधीनस्थों से पैसे वसूलते हों या पैसा वसूलने के लिये कहते हों। सामान्यत: सभी अच्छे पुलिस अधिकारी इस तरह का भ्रष्टाचार रोकने का अपने दिल से प्रयास करते हैं परन्तु कुछ प्रतिशत लोग इस विभाग में भी ऐसे हैं जो ऊँचे पदों पर बैठे हैं और इस तरह के भ्रष्टाचार में भागीदार होते हैं।
दिल्ली में पुलिस को '' ठुल्ला '' कहकर पुकारा जाता है- यह शब्द सम्भवत: निठल्ला से बना है- लोगों को चौराहे पर पुलिस कर्मी बैठे दिखायी देते हैं- उन्हें लगता है कि वे कुछ नहीं करते- पर यह सोच सही नहीं है। अखिल भारतीय आंकड़ों के अनुसार एक पुलिस कर्मी औसतन 13 घण्टे की डयूटी करता है। 12 घण्टे की डयूटी तो उसकी कागजों पर ही लगती है- फिर बहुत सारी आपातकालीन डयूटीयां भी उसे करनी पड़ती हैं। पुलिस कर्मी और चाहे जो हो, पर वे निठल्ले तो बिल्कुल भी नहीं हैं।
पुलिस के सामने समस्याएँ भी बहुत हैं-
सबसे पहले अत्यधिक लम्बी डयूटी : वो भी अति कठिन परिस्थितियों में-फिर उनके काम करने और रहने के हालात भी अत्यन्त विषम हैं। पुलिस कर्मियों के काम की प्रकृति भी ऐसी है कि वे सारा समय तनाव में रहते हैं- दिन भर किसी न किसी से उलझना पड़ता है- ऐसे में उनका स्वभाव अत्यन्त चिड़चिड़ा हो जाता है। चाहे वाहन चैकिंग हो या बाहरी व्यक्तियों का सत्यापन अथवा वारण्टों की तामीली । इन सभी कार्यो में पुलिस को आलोचना का ही शिकार होना पड़ता है । बिना लाइसेंस के वाहन चलाने वाले स्वयं तो कानून का उल्लघंन करते हैं किन्तु चालान की कार्यवाही पर एक नहीं अनेकों लोग पुलिस को ही चालान करने का दोषी मानते हैं। पुलिस के कार्यों की प्रकृत्ति ही ऐसी है कि उसकी आलोचना होना स्वाभाविक है।
बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में पुलिस में बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। पूरे देश में दिनों-दिन शहरीकरण, औद्यौगीकरण बढ़ रहा है, जिस कारण अपराध बढ़ रहा है साथ ही साथ कानून व्यवस्था की समस्यायें भी बढ़ रही हैं। विकसित देशों में जहाँ प्रति एक हजार जनसंख्या पर सात से आठ पुलिस कर्मी तैनात हैं, वहीं हमारे देश में यह संख्या 1.3 के आस-पास है। स्वाभाविक है कि हमारे देश में पुलिस बहुत ही ज्यादा काम के दबाव में रहती है।
पुलिस कर्मी जनता की सुरक्षा के लिये जहां जाड़ों की रातों में गली कूचे में सीटी बजाते घूमता फिरता है, वहीं जून की तपती हुई लू में चौराहों पर खड़ा होकर यातायात नियंत्रित करता है। जब बाकी सभी लोग अपने घरों में त्योहार मनाते हैं तब भी वह अपने परिवार को छोड़कर चौराहों पर डयूटी करता है । लोगों के त्यौहार शांति से मनें, इसके लिये वह अपने त्यौहारों को भूल जाता है। यह एक प्रकार की बिडम्बना ही है कि इस प्रकार की कठिन परिस्थितियों में अपने दायित्वों का निर्वहन करने वाला पुलिस कर्मी कभी-कभी पुलिस की एक छोटी सी गलती से पूरे समाज के गुस्से का शिकार बन जाता है । काश उसके त्याग के अनुरूप सामाजिक प्रतिष्ठा ही उसे मिल पाती...!
एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि पुलिस कर्मियों की कोई यूनियन नहीं होती, उन्हें हड़ताल का अधिकार नहीं होता। आम तौर पर प्रतिवर्ष चार से पाँच प्रतिशत पुलिस कर्मी निलम्बित होते हैं और दण्ड पाते हैं, जबकि अन्य किसी विभाग में एक हजार में से एक आदमी को दण्ड देना भी टेढ़ी खीर साबित होता है। अन्य विभागों में बड़े-बड़े अनुशासनहीनता एवं भ्रष्टाचार से सम्बन्धित प्रकरणों में यूनियनें आगे आकर हड़ताल, नारेबाजी आदि करने लगती हैं। यहीं कारण है कि स्कूलों में अध्यापक नहीं आते, अस्पतालों में डाक्टर नहीं मिलते, कार्यालयों में स्टाफ एक जगह बैठकर गप्पें लड़ाने में व्यस्त रहता हैं, फिर भी आम आदमी उन्हें भ्रष्ट और असमाजिक नहीं समझता।
पुलिस के सामने सबसे बड़ी समस्या तो उनकी जरूरत से ज्यादा जवाबदेही की है। उन्हें एक से ज्यादा स्तरों पर जिम्मेदार ठहराया जाता है। कभी-कभी तो लगता है कि आज के परिवेश में हर कोई पुलिस का बॉस है- चाहे वो वरिष्ठ आई0ए0एस0 अधिकारी हो या वरिष्ठ आई0पी0एस0 अधिकारी... चाहे राजनीतिज्ञ हों या न्यायिक अधिकारी- सभी के प्रति पुलिस जवाबदेह है। फिर जितने भी माननीय न्यायिक आयोग हैं- उन सब के प्रति भी पुलिस जवाबदेह है। आज की तारीख सबसे अधिक जवाबदेही तो मीडिया व जनता के प्रति है। कभी-कभी यह सब इतना ज्यादा हो जाता है कि एक अदना सा पुलिस कर्मी इन सब के बोझ से अपना नियंत्रण खो बैठता है और फिर सचमुच की गलतियॉ कर बैठता है।
(अशोक कुमार)