समर्पित

इन्सानियत की सेवा करने वाले खाकी पहने पुलिस कर्मियों को जिनके साथ कार्य कर मैं इस पुस्तक को लिख पाया और
माँ को, जिन्होंने मुझे जिन्दगी की शुरुआत से ही असहाय लोगों की सहायता करने की सीख दी

बुधवार, 29 सितंबर 2010

जेलर जेल में- वृद्ध के साहस ने दिखाया रंग

जेलर जेल में

भौतिकता, अवसरवादिता, मूल्यहीनता

सबके बोझ तले मरती हुई मानवता-

कोई नई बात नहीं है।

युगों-युगों से होता आया है यह तो...!

आज के युग की विकट समस्या

यही है कि...

जीवन की इस अंधी दौड़ में

यही सब तो जीवन मूल्य बन गये हैं!

और...

जो इस दौड़ में शामिल नहीं हो पाते

मूर्ख और पागल कहलाते हैं!

('मेरी डायरी' से - फरवरी, 1988)

cuffs to jailbar हमारी जेलें अपराधियों को सुधारने के लिये बनी हैं। ये आपराधिक न्याय-प्रणाली का एक महत्वपूर्ण अंग है और माना जाता है कि अपराध रोकने में उनकी मुख्य भूमिका है। परन्तु हाल के कुछ वर्षो में देखने में आया है कि कुछ जेलें बड़े अपराधियों के लिये सुरक्षित ऐशगाह बन गई हैं। बड़े अपराधियों को ऐसी जेलों के अन्दर सब तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हो जाती हैं। कई जगहों पर अपराधी जेल के अन्दर से ही अपराधिक गैंगों का संचालन भी करते हैं । आपराधिक गतिविधियाँ करते वक्त उन्हें पुलिस मुठभेड़ व प्रतिद्वद्वियों से खतरा भी नहीं रहता । आज-कल तो कुछ अपराधी जेल में ही रहते हुए चुनाव भी लड़ते हैं।

जेल में जाने वाले सभी लोग खूँखार अपराधी नहीं होते। कई बार कानून का पालन करने वाले सीधे-सादे नागरिक भी पारिवारिक झगड़े या सम्पत्ति के विवाद या सड़क दुर्घटना आदि कारणों से जेल में पहुँच जाते हैं। ये लोग जेल के अन्दर रह रहे संगठित अपराधिक माफियाओं का शिकार बन जाते हैं। खूँखार अपराधी इनको जेल के अन्दर ही पीटने की धमकी देकर इनके परिवारों से काफी मोटी रकम भी ऐंठ लेते हैं। ये सब सौदेबाजी जेल के अन्दर ही हो जाती है उसे अंजाम बदमाशों के बाहर बैठे गुर्गे दे देते हैं। और इस तरह से जेल में बैठे शातिर बदमाश वसूली भी कर लेते हैं और उनके ऊपर कोई इल्ज़ाम भी नहीं आता क्योंकि उनका जेल में बन्द होना कानूनी रूप से उनकी सहायता करता है। कभी-कभी तो जेल का स्टाफ भी इन खूँखार अपराधियों से डरकर चुप्पी साध लेता है। कहीं-कहीं पर इन अपराधियों से जेल के स्टाफ की मिलीभगत भी प्रकाश में आयी है।

एक दिन जब मैं एक जनपद में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त था तो एक बूढ़ा आदमी मेरे कार्यालय में आया। उसकी कमर झुकी हुई थी और वह एक लाठी का सहारा लेकर चल पा रहा था। वह गांव का एक छोटा-सा दुकानदार था, जो मटमैला कुर्ता और कई जगह से फटी धोती पहने हुए था। इस व्यक्ति ने बिना किसी डर के जिस दृढ़ता के साथ अपनी बात बतायी, वह सचमुच काबिले तारीफ थी ।

उसने बताया कि उसके गांव के पास का ही एक अपराधी जिला जेल में बन्द था और वह उसको लगातार धमकी भरी चिट्ठियाँ भेज रहा था। इन चिट्ठियों में बदमाश ने उससे एक लाख रूपये की माँग की थी और रुपया न देने पर उस वृध्द व्यक्ति को या उसके पोते को मारने की धमकी भी दी थी।

सबसे पहले तो मुझे इस बात पर हैरानी हुई कि एक इतने गरीब-से दिखने वाले व्यक्ति से भी कोई फिरौती माँग सकता है। जब मैने उससे इस बारे में सवाल पूछे तो मेरी समझ में आ गया कि मेरी हैरानी गलत थी । क्योंकि वसूली हर स्तर पर हो सकती है और जब आदमी को जान के लाले पड़े हों तो गरीब-से-गरीब आदमी भी अपना घर, दुकान जमीन अथवा गहने बेचकर, अपराधियों के कहर से बचने के लिये एक या दो लाख रुपये जुटा ही सकता है ।

दुख की बात तो यह थी कि यह वसूली का धंधा अपराधियों को सुधारने के लिये बनी जेल से ही चलाया जा रहा था। मैं यह भी सोच रहा था कि पैसा कहॉँ और किसको दिया जाएगा। मैंने बूढ़े बाबा से पूछा तो उसने बताया कि पैसे को जेल में ही दिया जाना है। यह सुन कर मैं तो दंग ही रह गया। बड़े और ख्रूँखार अपराधी जेलों में रहकर आपराधिक गतिविधियों का संचालन करते हैं, यह तो मैने सुना था, किन्तु जेल के अन्दर ही पैसा भी इकट्ठा किया जा रहा है, ऐसी शर्मनाक और आश्चर्यजनक बात मैंने पहली बार सुनी थी।

हमारे जेलों में व्यवस्था इस हद तक बिगड़ चुकी है, यह सुनकर मैने इस गन्दगी को जड़ से मिटाने का संकल्प लिया।

मैंने कुछ तय करने के बाद उस बृध्द व्यक्ति से कहा, ''बाबा, हम इन अपराधियों को पकड़ने के लिए जाल बिछा सकते हैं परन्तु इसमें आपकी जान को बहुत खतरा होगा। आपको साहस और हिम्मत का परिचय देना होगा। आपकी मदद के बिना हम ये सब नहीं कर पाएंगे।''

बृद्ध कुछ देर तक सोचता रहा और साहस बटोर कर बोला कि 'मैं आपका पूरा साथ दूंगा। क्षेत्र वासियों को इन बदमाशों की बदमाशी से छुटकारा दिलाने के लिये मुझे किसी भी हद तक जाना पड़े, मैं पीछे नहीं हटूंगा ।' तब मैने उसे अपनी पूरी योजना समझायी, जिससे वह बदमाशों से सम्पर्क कर योजना के अनुसार जेल में पैसा पहुँचाने का दिन व समय आदि निर्धारित कर सके।

निर्धारित तिथि पर बृध्द समय से दो घंटा पहले ही आ गया और अपने साथ नोटों की गड्डी भी लेता आया। इस बार उसके चेहरे पर आत्मविश्वास साफ झलक रहा था और उसकी चाल में भी दृढ़ता थी। वह पिछली बार की तरह झुका हुआ या टूटा हुआ भी नहीं लग रहा था। मैने चुटकी लेते हुए कहा, ''बाबा, आज तो आप जवान लग रहे हो!''

बृध्द ने अत्यन्त भावुक होकर कहा, ''साहब, आपने ध्यानपूर्वक मेरी पूरी बात सुनी और उसकी गम्भीरता को समझ कर मेरी सहायता करने के लिये योजना बनाई, यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। आपकी बातों से तो मुझे मानो ज़िंदगी का एक नया मकसद ही मिल गया... इस बूढ़े आदमी की जिंदगी यदि इलाके के लोगों को इस तरह के बदमाशों से छुटकारा दिला सकने में काम आ जाय तो मैं अपना जीवन धन्य समझूंगा।''

मुझे भी ऐसा लगा कि यह बृध्द सिर्फ अपने ही लिये नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिये मददगार साबित हो सकता है। ऐसे बदमाश को पकड़वा कर समाज को इस गन्दगी से छुटकारा दिला सकता था। इस दुबले-पतले और कमजोर व्यक्ति द्वारा दिखाये गए साहस को देखकर मन ही मन मैं उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करने लगा। जो आदमी कल तक इतना डरा व भयभीत दिख रहा था, वही आज इतना निडर होकर सीना ठोक कर खड़ा था और कह रहा था कि समाज को ऐसी बुराइयों से छुटकारा दिलाने के लिये उसे अपनी जान भी गँवानी पड़े तो उसे कोई परवाह नहीं होगी।

हमने अपराधियों से मिलने के बहाने उस बृध्द के साथ जाने वाली पुलिस पार्टी को सादे कपड़ों में तैयार किया। नोटों की गड्डी पर निशान लगाये और फिर इस पार्टी को उस आदमी के साथ जेल भेज दिया। सामान्यत: जेल में प्रवेश करने के नियम काफी कड़े होते हैं। पहले तो मिलने की अनुमति लेनी पड़ती है, अनुमति मिलने के बाद आदमी को पूरा विवरण विस्तार से जेल के रजिस्टर में अंकित करना पड़ता है, कितने बजे प्रवेश किया, कितने बजे बाहर निकले, किससे मिलना है आदि-आदि।

पुलिस पार्टी को यह सब विवरण अंकित करना पड़ा, किन्तु उनके साथ ही गये बृध्द को, जो नोटों की गड्डी लेकर गया था, किसी भी तरह की औपचारिकता पूरी नहीं करनी पड़ी। उसको जेल का स्टाफ रजिस्टर में लिखा-पढ़ी किये बिना ही सम्बन्धित अपराधी से मिलाने के लिये ले गया। इससे साफ जाहिर था कि जेल के स्टाफ को इस वसूली के धंधे की जानकारी पहले से थी और उनकी भी इसमें मिली-भगत थी ।

अपराधी ने उससे नोटों की गड्डी ले ली और उसको आश्वस्त किया कि उसे और उसके पोते को डरने की कोई जरूरत नहीं है। वह खुद तो उनको कुछ कहेगा ही नहीं, बाकी अपराधियों को भी कुछ नहीं करने देगा। फिर उसने नोटों की गड्डी जेल के ही किसी स्टाफ को दे दी, जो सम्भवत: इसके बाद बँटवारे की व्यवस्था करने वाला था ।

इस समय तक पुलिस पार्टी ने अपनी सही पहचान नहीं बताई थी। उन्होंने मुझे फोन पर पूरा घटनाक्रम बताया तथा अगले निर्देश माँगे। मैंने उनसे कहा कि वे अपनी पहचान को सार्वजनिक कर दें और सभी सम्बन्धित लोगों से पूछतांछ करें कि कैसे बिना प्रविष्टि के इस बृध्द को जेल के अन्दर आने की अनुमति दी गई ? पैसा जेल के अन्दर क्यों पहुँचने दिया गया ? कैसे पैसा लिया गया और अब जेल के कर्मचारी के पास ही रखा है ? जेल मैनुअल के प्रावधानों का पालन क्यों नहीं किया गया ?

पुलिस पार्टी ने उपरोक्त सवालों पर जेल स्टाफ से गम्भीरता से पूछताछ की। उनकी पूछताछ से पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि इस पूरे अपराध में जेल का स्टाफ भी सम्मिलित था, क्योंकि उनकी सहमति के बिना ऐसा सम्भव ही नहीं था ।

अभी तक तो मैं पुलिस अधिकारी होने के नाते पुलिस कर्मियों के खिलाफ जो शिकायतें मुझे मिलती रहती थी, जिनमें सत्यता पाये जाने पर उनके विरूद्व कार्यवाही करता था, किन्तु जेल के स्टाफ द्वारा अपने छोटे-छोटे निजी स्वार्थो की पूर्ति हेतु समाज को कितनी बड़ी क्षति पहँचाई जा रही थी, यह मैने पहली बार देखा था। कुछ सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के इस तरह के भ्रष्ट आचरण व क्रिया-कलापों से लोगों का पूरी न्याय व्यवस्था या प्रशासन से विश्वास ही उठ जाता है ।

मैने कठोर निर्णय लेते हुए मौके पर इस अपराध में शामिल जेल के सभी कर्मचारियों एवं जेलर को भी अवैध वसूली की धाराओं में गिरफ्तार करने के निर्देश दिए। यह शायद जेल के इतिहास में पहली बार हुआ होगा कि जेल का एक जेलर स्वयं ही अभियुक्त के रूप में उसी जेल में बन्द हुआ हो। जेल की स्टाफ-यूनियन ने प्रदेशव्यापी हड़ताल की धमकी दी किन्तु कानून तो अपना काम करेगा ही। अन्तत: पूरी विवेचना के बाद पर्याप्त साक्ष्य पाये जाने पर बदमाशों एवं जेल के स्टाफ़ के विरुध्द चार्जशीट न्यायालय भेजी गई ।

उसके बाद उस जेल में जो जेलर आये वह बहुत कड़क थे। बहुत जल्द ही उन्होंने जेल की कार्यप्रणाली को सुधार दिया और अपराधियों को अहसास कराया कि जेल से किसी भी हालत में अपराध नहीं होने दिया जाएगा ।

वह बृध्द सचमुच बहुत खुश था कि उसने समाज की रक्षा के लिए एक मिसाल कायम की थी। ...

(अशोक कुमार)

सोमवार, 13 सितंबर 2010

कोई भी दिवानी मामला बिना पुलिस की मदद के नहीं सुलझ सकता…

भू-माफिया

पाहोम को अपना सपना याद आया और उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी,

उसकी टांगे जवाब दे गई और वो गिर पड़ा ।

चीफ बोला ''कितना अच्छा आदमी था ! उसने कितनी जमीन इकठ्ठी की थी''

पाहोम का नौकर दोड़ते हुये आया और उसने उसे उठाने की कोशिश की

परन्तु पाहोम के मुँह से खून निकल रहा था और वो मर चुका था ।

नौकर ने फावड़ा उठाया और पाहोम के लिये कब्र खोदी-

और उसे दफना दिया ।

उसे सिर से पाँव तक सिर्फ छ: फुट जमीन की ही जरूरत थी ।

टॉलस्टाय की कहानी 'हाऊ मच लैंड डज ए मैन नीड' की आखिरी पंक्तियाँ

 

पुलिस में सबसे ज्यादा शिकायतें जमीन संबंधित झगड़ों की आती हैं। किसी ने किसी की जमीन दबा ली है तो कोई किसी को रास्ता नहीं दे रहा है। किसी ने दूसरे की जमीन पर ही दीवार बना दी है तो किसी ने दीवार ढहा दी है आदि-आदि...। कहीं भाई-भाई का झगडा है तो कही पड़ोसी-पडोसी का। सारे-के-सारे जमीन के झगड़े ! ये कोई आज के झगड़े नहीं हैं, ये तो सदियों से चले आ रहे हैं।

भू-माफिया १.htm पुराने जमाने से अपराध के तीन मुख्य कारण माने जाते रहे हैं : 'जर, जोरू और जमीन'। परन्तु जब से जमीन के भाव बढ़ गये हैं, इसमें एक नया पक्ष जुड़ गया है और वह है गुण्डों, बदमाशों और माफियाओं का धनबल और बाहुबल का यह एक ऐसा अपवित्र गठजोड़ बनता गया है जो जमीन कब्जाने में इतना माहिर हो गया है कि वह पुलिस और कोर्ट-कचहरी से भी नहीं डरता। भू-माफिया आम-आदमी की इस कमजोरी का फायदा उठाता है कि पुलिस और कोर्ट-कचहरी की शरण में जाने पर इतनी कानूनी पेचीदगियाँ झेलनी पड़ती हैं कि इससे तो अच्छा है, कुछ और पैसा खर्च करके समझौता कर लिया जाय।

माफिया का अपना तंत्र और अपनी एक व्यवस्था विकसित होती चली गई है। ये लोग जमीनों पर कब्जा करवाने, कब्जा खाली करवाने, फर्जी कागजात, फर्जी बैनामा, फर्जी वसीयत आदि बनवाने में माहिर होते हैं । रजिस्ट्री ऑफिस तक भी इनकी पहुँच होती है । कभी-कभी ये लोग दूसरे लोगों की जमीन की भी रजिस्ट्री करवा डालते हैं और कभी एक ही जमीन की दो-तीन रजिस्ट्री करवा लेते हैं । 'खोसला का घोंसला' फिल्म की कहानी इसी व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा है।

प्राय: देखने में आया है कि ऐसे मामलों में पुलिस की भूमिका बहुत सकारात्मक नहीं होती। पैसे और प्रभावशाली लोगों के दखल के कारण पुलिस भी जाने-अनजाने माफिया के ही हितों को बढ़ावा दे रही होती है। पुलिस की भूमिका के दो पहलू हैं जो कि पीड़ित के खिलाफ़ जाते हैं। पहला तो यह कि जब झगड़ा होगा तो पुलिस दोनों पार्टियों को बन्द कर देगी । पुलिस का यह सिध्दांत गुण्डे-बदमाश और माफियाओं को खूब रास आता है क्योंकि माफिया अपने साथ गुण्डे और बदमाशों को रखते हैं, जो जेल जाने से नहीं डरते। उन्हें इसी काम के तो पैसे मिलते हैं, जब कि आम आदमी जेल जाने के नाम से ही काँपने लगता है। अंतत: परेशानी तो पुलिस को ही झेलनी पड़ती हैं क्योंकि भू-माफिया का उद्देश्य ही यह रहता है कि आम आदमी थक हार कर औने-पौने दामों में सम्पत्तिा बेचकर भाग जाए ।

cartoon (1) दूसरी बात जो पुलिस की छवि पर बट्टा लगाती है, वह है पुलिस का ऐसा रवैया जिसके अनुसार भूमि के मामलों में पुलिस यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है कि 'यह तो पुलिस केस है ही नहीं, दीवानी का मामला है, इसके लिए आप कोर्ट मे जाकर केस लड़िए'। इसके पीछे भी धनबल या प्रभावशाली लोगों का हाथ होता है। इस तरह के बहाने पुलिस अपनी सुविधानुसार बनाती है जब उसे माफिया का पक्ष लेना होता है। मामला दीवानी का है अथवा फौजदारी का, इस बात का फैसला आम तौर पर केस के तथ्यों पर आधारित नहीं होता बल्कि कई प्रकार के निहित स्वार्थ इसमें सम्मिलित होते हैं। वास्तविकता यह है कि आज की तारीख में कोई भी दीवानी मामला बिना पुलिस की मदद के नहीं सुलझ पाता है। यदि कोई किसी की जमीन को फर्जी वसीयत के आधार पर बेच दे तो यह साफ-साफ धोखाधड़ी का आपराधिक मामला हुआ परन्तु उसे न्यायालय का मामला कह कर टाल देने से पीड़ित को कभी न्याय नहीं मिल पाता। इसी प्रकार यदि कोई पार्टी गुण्डों की सहायता से किसी के घर का सामान उठवाकर बाहर फैक दें तो यह साफ-साफ आपराधिक मामला हुआ किन्तु ऐसे लोग धन-बल और बाहुबल से इस तरह के मामले को भी दीवानी का मामला बताकर टालने के चक्कर में रहते हैं।

एक बार एक बूढ़ा आदमी अपनी पुत्रवधू के साथ मुझसे मिलने आया। वह केन्द्रीय अर्धसैनिक बल से इन्सपेक्टर के पद से रिटायर हुआ था। उसने पूरी ज़िन्दगी ईमानदारी से नौकरी की थी और रिटायरमेंट के बाद जीपीएफ, ग्रेच्युटी आदि मिलाकर उसके पास कुल बारह लाख रुपए जमा हुए थे। जिंदगी भर पैरा-मिलिट्री की भाग-दौड वाली नौकरी खत्म करके अब वह किसी एक जगह पर शांति से घर बनाकर रहना चाहता था ताकि पैरामिलिट्री की तरह उसे रोज-रोज अपना बोरिया-बिस्तर न उठाना पड़े।

जब वह अपने लिए जमीन की तलाश कर रहा था, एक जमीन बेचने वाला ग्रुप उससे टकराया। इस ग्रुप ने जो जमीन उसको दिखायी वह उसको अच्छी लगी क्योंकि वह उसकी सभी जरूरतों के अनुरूप थी और दाम भी आस-पास की जमीनों के हिसाब से कुछ कम थे। अन्तत: 12 लाख में सौदा पक्का हो गया और उसने पैसा देकर रजिस्ट्री भी करा ली।

रिटायर्ड इन्सपैक्टर जब जमीन पर कब्जा लेने गया तो उस जमीन पर कोई और बैठा हुआ था। उसने उनके कागज़ात देखे और रजिस्ट्री आफिस से मालूम किया तो पता चला कि सचमुच वह जमीन उसी के नाम थी, जो जमीन पर कब्जा किये हुए था। जिन लोगों ने उसके नाम रजिस्ट्री की थी उनके नाम वह जमीन थी ही नहीं। तब जाकर उसे अपने साथ हुई धोखाधड़ी का पता चला। शुरू में उसने जमीन के मालिक तथा कब्जेदार से झगड़ा करने का प्रयास किया किन्तु जल्द ही उसकी समझ में आ गया कि जमीन के मालिक की कोई गलती नहीं है बल्कि भू-माफियाओं द्वारा उसके साथ बारह लाख रूपये की धोखाधडी की गई है। धोखाधड़ी भी इतनी सफाई से की गई थी कि भोले-भाले इन्सपैक्टर को इसका पता ही नहीं चल पाया। ऐसे में वह भू-माफिया के पास पैसा वापस लेने गया किन्तु इस बार उनके तेवर ही अलग थे। उन्होंने पैसा देने से साफ इन्कार कर दिया और इन्सपेक्टर से कहा, ''हाँ, जमीन उस कब्जेदार के नाम भी है और तुम्हारे नाम भी है... यदि तुममें हिम्मत है तो जमीन पर कब्जा कर लो।''

सेवानिवृत्त निरीक्षक ने क्षेत्र के संभ्रान्त लोगों से सम्पर्क कर दबाव बनाने का प्रयास किया ताकि उसका पैसा उसे वापस मिल जाय किन्तु भू-माफिया की पहुँच उन लोगों से कहीं ऊपर तक थी और फिर माफिया के गुण्डों की वजह से कोई भी उनसे पंगा नहीं लेना चाहता था। इलाके के सरमायेदार लोगों ने मामले में दखल देने से मना कर दिया और इंसपैक्टर से कहा कि अच्छा हो, वह पुलिस महकमे के पास जाए ।

पुलिस थाने में यह भू-माफिया ग्रुप पहले ही अपनी पकड़ बना चुका था, क्योंकि यह उनका पहला केस नहीं था। इस तरह के कई लोगों को पहले भी वह धोखाधड़ी का शिकार बना चुके थे। जैसा कि मैं पहले भी स्पष्ट कर चुका हूँ, धनबल व बाहुबल से चीजें दबा दी जाती हैं। और जब यह थका-हारा बूढ़ा आदमी पुलिस थाने पहुँचा तो उसको वही रटा-रटाया जवाब मिला। थानेदार ने बताया कि यह तो दीवानी का मामला है, इसमें पुलिस कुछ नहीं कर सकती। उसको जाकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाना चाहिए और वहीं से उसको न्याय मिलेगा। अब उसने वकीलों के चक्कर काटे। वहाँ उसकी समझ में आया कि न्यायालय में तो ऐसे मामले बीसियों सालों तक लटके रहते हैं। जब तक उसे कब्जा मिलेगा तब तक तो उसकी जिन्दगी ही खत्म हो चुकी होगी। कुल मिलाकर, वह समझ चुका था कि न्यायालय जाने की न तो उसकी हिम्मत थी और न ही आगे जाने के लिये उसके पास पैसा था।

बूढ़ा आदमी जब चारों तरफ से न्याय की उम्मीद खो चुका था, तब उसे किसी ने मुझसे मिलने की सलाह दी और बताया कि वहाँ जाकर हो सकता है कि उसे कोई रास्ता मिल जाय। उस वृध्द ने अपनी सारी आपबीती सुनाई। लगभग गिड़गिड़ाते हुए उसने कहा, ''साहब, मेरी जिन्दगी-भर की कमाई भू-माफियों ने हड़प ली है। न मुझे जमीन मिली है, न ही मेरा पैसा मुझे वापस मिला है। मैं सब जगह दौड़ लगाकर थक-हार चुका हँ । अब आप ही मेरी आखिरी उम्मीद हैं।''

उसकी पूरी बात सुनकर मैं समझ गया था कि यह आदमी धोखाधड़ी का शिकार हो चुका है। थानाध्यक्ष ने जिस तरह से उसके साथ मीठी बातें करके उसे न्यायालय की शरण में जाने की सलाह दी थी, उससे स्पष्ट था कि माफिया ने अपनी पैठ थाने में भी बना रखी थी। मेरी नजरों में यह केस साफ-साफ भारतीय दण्ड संहिता की धारा चार सौ बीस के अन्तर्गत अपराध की श्रेणी में आता था। इस धारा में कुल मिलाकर दो ही बातें होनी आवश्यक हैं। पहली, किसी को गलत फायदा पहुँचाने की नीयत एवं दूसरी, किसी के साथ धोखाधड़ी होना। इस केस में स्पष्ट झलक रहा था कि इस आदमी के साथ बारह लाख की धोखाधड़ी की गई थी। मैंने उसके द्वारा दिखाये गए सभी कागज़ों का गहराई से अध्ययन किया और उसकी बात को सच पाया। उस बेचारे की जिन्दगी भर की गाढ़ी कमाई माफियाओं ने एक ही बार में हड़प ली थी और उसे दर-दर की ठोकरें खाने के लिये बेसहारा छोड़ दिया था। इसके अतिरिक्त हर सम्बन्धित व्यक्ति और विभाग उससे अपना पल्ला झाड़ रहा था। मैने सच्चाई का साथ देने का मन बनाया और इस बारे में सोचा कि कैसे माफिया को वैधानिक आधार पर सजा दी जा सकती है। मैंने थानाध्यक्ष को साफ शब्दों में एफ. आई. आर. लिखने हेतु निर्देशित किया यद्यपि उसने मुझको भी गुमराह करने की कोशिश की कि यह तो दीवानी का मामला है, इसमें पुलिस को नहीं पड़ना चाहिए।

पुलिस विभाग में आज भी बहुत बड़ी संख्या में ऐसे अधिकारी हैं जो सचमुच ईमानदार हैं। किन्तु उनकी पकड़ इतनी मजबूत नहीं है कि वह अधीनस्थ पुलिस वालों के पैसे के खेल को अन्दर तक समझ पाएँ। वह सामान्यत: ऐसे निर्देश देते हैं कि जमीन के झगड़ों में पुलिस को नहीं पड़ना चाहिये और ऐसे झगड़ों में दोनों पक्षों का चालान कर देना चाहिए। मेरी नजर में इस तरह का दृष्टिकोण सरासर गलत है क्योंकि ऐसे निर्देर्शो का नीचे के पुलिस अधिकारी अपने निहित स्वार्थो की पूर्ति हेतु उपयोग करते हैं। ऐसे में जहाँ उनको अपना फायदा नजर आता है, वहाँ वे इस लाइन को पकड़ लेते हैं कि पुलिस दीवानी मामले में नहीं पड़ेगी। अन्यथा सच तो यह है कि आज की तारीख में भी पुलिस के दखल के बिना कोई जमीन का झगड़ा सुलझ ही नहीं सकता। इसी तरह, जहाँ साफ दिखाई दे कि एक ओर पीड़ित पार्टी का पक्ष सही है, दूसरी ओर दूसरी पार्टी द्वारा गुण्डों के बल पर जबरदस्ती की गई है, ऐसे में दोनों के विरूध्द कार्यवाही करने का कोई मतलब नहीं बनता। हमें पीड़ित पक्ष की मदद करनी चाहिए और जिन्होंने गुण्डों के बल पर कब्जा किया है या जो अपराधियों की मदद से कब्जा खाली करवाते हैं, उन्हें जेल भेजा जाना चाहिये। पीड़ित पक्ष को पुलिस की सुरक्षा मिलनी चाहिए, न कि दो तरफा कार्यवाही के नाम पर पुलिस द्वारा उत्पीड़न। देखा गया है कि इस तरह के निर्देश देने वाले पुलिस अधिकारी खुद तो ईमानदार होते हैं किन्तु उनके नीचे की पुलिस कितना अपना स्वार्थ साध रही है और कितना पीड़ित पक्ष का उत्पीड़न किया जा रहा है, इस पहलू को वे नहीं जान पाते।

थानाध्यक्ष को इस मामले में एफ. आई. आर. लिखने के निर्देश के कुछ ही घंटों के अन्दर मेरे पास शहर के कई प्रभावीशाली लोगों के फोन आये जिन्होंने यह तर्क देने की कोशिश की कि यह तो दीवानी का मामला है इसलिए पुलिस इसमें क्यों दखल दे रही है। मैं समझ गया था कि मुझ पर दबाव बनाने के लिये ये सभी फोन माफिया द्वारा करवाये गये हैं । अन्तत: मेरे निर्देश पर सभी छ: लोगों के खिलाफ एफ. आई. आर. लिखी गई, जिनमें दो लोग गिरफ्तार भी कर लिये गए। इस माफिया गिरोह का सरगना नोएडा में रहता था। मैंने उसे गिरफ्तार करने के लिये पुलिस पार्टी को नोएडा भेजा किन्तु उसने पैसे के बल पर भीड़ इकट्ठा करके पुलिस पार्टी पर हमला करवा दिया और पुलिस को खाली हाथ लौटना पड़ा। इसी दौरान माफिया सरगना ने तेज तर्रार वकीलों की सहायता से उच्च न्यायालय से गिरफ्तारी पर स्टे भी ले लिया।

इस दौरान रिटायर्ड इंसपेक्टर मुझसे लगातार सम्पर्क बनाए हुए था और उसने ऐसे दूसरे लोगों को भी ढूँढ लिया था जिनके साथ इसी माफिया गिरोह ने धोखाधड़ी की थी। एक दिन वह एक व्यक्ति को लेकर मेरे कार्यालय में आया। उस व्यक्ति के साथ भी इसी तर्ज पर धोखाधड़ी की गई थी। मेरे द्वारा उस व्यक्ति की ओर से भी एफ. आई. आर लिखा दी गई और उच्च न्यायालय में पैरवी करके माफिया गिरोह का गिरफ्तारी-स्टे भी खारिज करवा दिया गया। लगातार कोशिशों के बाद अन्तत: सभी छ: लोग पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिये गए और मामले में आरोप पत्र तैयार कर न्यायालय भेज दिया गया।

इस घटना के ठीक चार साल बाद जब मैं दूसरी जगह स्थानांतरित हो चुका था तथा घटना को पूरी तरह भूल चुका था, एक शाम उसी रिटायर्ड इंसपेक्टर का फोन मेरे पास आया । इस बार उसकी आवाज थकी-हारी नहीं लग रही थी, बल्कि आवाज से खुशी झलक रही थी। उसने मुझे बताया कि धोखाखड़ी का वह केस इतना मजबूत था कि माफिया गिरोह उसे कोर्ट में नहीं झेल पाया और बीच में ही उन्होंने मेरा बारह लाख वापस करके आपसी समझौता कर लिया। उसका पूरा पैसा उसे वापस मिल गया है। पुलिस की वजह से उस माफिया गिरोह के लोग जेल में भी रहे, और जनता के सामने बेनकाब भी हो गए। फोन पर उसकी बातें सुनकर मुझे सचमुच संतोष और खुशी हुई क्योंकि एक शरीफ और ईमानदार आदमी को उसका हक तो मिल ही गया था, सबसे बड़ी बात यह थी कि उसके जैसे जाने कितने और लोग धोखाधड़ी का शिकार होने से बच गए थे।

-अशोक कुमार

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