समर्पित

इन्सानियत की सेवा करने वाले खाकी पहने पुलिस कर्मियों को जिनके साथ कार्य कर मैं इस पुस्तक को लिख पाया और
माँ को, जिन्होंने मुझे जिन्दगी की शुरुआत से ही असहाय लोगों की सहायता करने की सीख दी

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

सच्चाई से कितना अलग है पुलिस के प्रति आम दृष्टिकोण…?

 

पुलिस: मिथक और यथार्थ

दरवाजे पर खड़ा संतरी

सर्दी-गर्मी और बरसात

सब भुलाकर ...

खड़ा रहता है दिन भर बन्दूक ताने

ठोकता सलाम आने-जाने वाले साहबों को ।

काश! साहब लोग समझ पाते

उसकी नीरस व उबाऊ जिन्दगी को

उसकी जिजीविषा की पीड़ा को ।

काश ! साहब लोग उसकी जगह खड़े होते

सिर्फ कुछ पल...

और देखते ...

अपने अहं को उसके स्तर पर लाकर !

(“मेरी डायरी” से 8 मार्च, 1990 )

पुलिस व्यवस्था समाज को सुरक्षा और न्याय प्रदान करने वाली प्रमुख प्रशासनिक व्यवस्था है। पुलिस की जरूरत तो घर जैसी छोटी इकाई में पड़ती है। माँ-बाप हमारे पहले पुलिस अधिकारी होते हैं। कभी-कभी वो भी अपने कायदे-कानून थोपते प्रतीत होते हैं- परन्तु बाद में समझ में आता है कि ऐसा वो हमारे हित में ही करते थे। पुराने जमाने में जब संयुक्त परिवार होते थे तो परिवार का मुखिया भी एक बड़ा पुलिस अधिकारी होता था जो कुनबे के कायदे-कानून के हिसाब से संयुक्त परिवार को चलाता था - एवं जरूरत पड़ने पर उसकी सुरक्षा योजना भी बनाता था। स्कूल-कालेजों के शिक्षक भी तो एक प्रकार से पुलिस वाला काम ही करते हैं, हमें अनुशासन में रहना सिखाते हैं और अनुशासन तोड़ने वालों को दण्डित करते हैं। परम्परागत भारतीय समाज में जो काम समाज के बड़े -बूढ़े और पढ़े-लिखें लोग करते थे, उन्हें पूरा करने की दरकार आज पुलिस से की जाती है।

आज के युग में समाज के हर आदमी का अनिवार्य रूप से पुलिस से पाला पड़ता है। शहरी जिन्दगी में तो घर से निकल कर सड़क पर आते ही ट्रैफिक पुलिस से सामना शुरू हो जाता है। कोई अप्रिय घटना घटित होती है तो तुरन्त पुलिस की याद आती है। कोई नया, अप्रत्याशित प्रसंग आड़े आता है तो भी पुलिस का स्मरण आता है। जाहिर है कि जब परम्परागत संबल अप्रासंगिक हो गये हों, ऐसे में नए संबल के रूप में पुलिस के प्रति लोगों की अपेक्षाओं और उनके दृष्टिकोण में भी फर्क आना ही था । इसलिए पुलिस के बारे में ढेर सारे किस्से-कहानियॉ प्रचलित होते हैं- जिनमें से कुछ सत्य होते हैं तो कुछ एकदम मिथ्या।

policeआजकल पुलिस की कार्यशैली पर बहुत फिल्में बनी हैं। आम आदमी के मन में पुलिस की जो छवि होती है, उसमें काफी भूमिका इन फिल्मों की भी होती है । फिल्मों ने पुलिस की ऐसी छवि बनायी है कि- ''पुलिस हमेशा लेट पहुँचती है ''- यह पूर्णतया सच नहीं है- फिल्मों में तो निर्देशक पुलिस को लेट पहुँचाते है क्योंकि इसमें मुख्य भूमिका तो नायक को करनी होती है- अत: नायक की भूमिका पूरी होने पर ही पुलिस को पहुँचाया जाता है। यदि पुलिस पहले पहुँच गयी तो नायक बेचारा किस बात का नायक रहेगा। पुलिस कोई हर जगह तो मौजूद हो नहीं सकती-घटना की सूचना मिलने पर ही पुलिस घटना स्थल के लिए चलती है- सूचना मिलने पर कितनी देर में पुलिस पहुँचती है- यही उसकी दक्षता का पैमाना है- फिर भी मेरा मानना है कि आधुनिक उपकरणों एवं वाहनों की बढ़ती उपलब्धता के कारण पुलिस के रिएक्शन टाइम व रिस्पॉन्स टाइम में सुधार हुआ है।

कई बार लोगों को कहते हुए सुना जाता है कि '' पुलिस अपराधियों से मिली होती है- पुलिस ही अपराध करवाती है''। हो सकता है इन बातों में कुछ हद तक सच्चाई हो। परन्तु सामान्यत: कोई भी पुलिस अधिकारी जानबूझ कर अपराध नही करवाता। अपराध होने पर उसे जनता का, उच्च अधिकारियों का तथा मीडिया का कोप-भाजन बनना पड़ता है। इसलिए यह सोच मिथ्या है। पर कुछ हद तक सच इसलिये कहा जा सकता है कि छोटे-मोटे मामलों में या -भ्रष्टाचार के कारण कभी-कभी पुलिस अपराधियों के प्रति नरम दिखाई देती है या उनके बगल में खड़ी दिखाई देती है- जिससे अन्तत: अपराध को बढ़ावा मिलता है। परन्तु इस बात में सौ प्रतिशत सच्चाई है कि पुलिस अपराध कभी खुद नहीं करवाती है।

कई लोग कहते हैं '' पुलिस सब बदमाशों को जानती है- वो चाहे तो मिनटों में चोरों-डकैतों को पकड़ सकती है...'' यह सोच भी सही नहीं है। हर पुलिस अधिकारी अपने क्षेत्र में घटित अपराध का शीघ्रातिशीघ्र अनावरण करना चाहता है। यह उसकी कार्यदक्षता है कि वह कितनी जल्दी ये सब कर पाता है। कई बार भाग्य, नियति एवं इत्तेफ़ाक की भी बात होती है- कठिन से कठिन केस कभी-कभी बहुत जल्द सुलझ जाते हैं और बहुत सीधे-सरल केस भी अत्यधिक मेहनत के बावजूद अनावृत नहीं हो पाते हैं। इसलिए पुलिस को लेकर ऐसी धारणा भी आधारहीन है।

पुलिस के बारे में लोगों की एक आम धारणा यह भी है कि पुलिस अत्यधिक भ्रष्ट है, जो पूर्णत: सत्य नहीं है। पुलिस भी समाज का ही एक अंग होती है, बल्कि समाज का ही आइना होती है। समाज से ही पुलिस कर्मी आते हैं और समाज में ही डयूटी करते है इसलिये सामाजिक गतिविधियों से वह अछूते नहीं रह पाते हैं । चॅूकि भारतीय समाज विकासशीलता के दौर से गुजर रहा है, ऐसे दौर में भ्रष्टाचार समाज में काफी हद तक व्याप्त रहता है। अन्य विकासशील देशों की भाँति ही हमारे देश में भी भ्रष्टाचार समाज में व्याप्त है। परन्तु पुलिस सबसे अधिक भ्रष्ट है यह बात बिल्कुल भी सत्य नहीं है। ऐसे बहुत से विभाग हैं जो अत्यधिक भ्रष्ट हैं किन्तु वहाँ पर सरकारी धन की बन्दरबाट होती है। यहाँ बड़े लोगों द्वारा बड़े स्तर का भ्रष्टाचार किया जाता है, जहाँ लाखों और करोड़ों के खेल-खेले जाते हैं। चॅूकि इसमें रिश्वत देने वाले व लेने वाले दोनों का फायदा होता है और क्षति सरकार की होती है, आम आदमी को इससे सरोकार नहीं होता है। पुलिस की तरह इन लोगों की सीधी सामाजिक जवाबदेही न होने के कारण भ्रष्टाचार का संदेश जनता तक नहीं पहुँच पाता है। जबकि पुलिस में जो भ्रष्टाचार है, वह बहुत छोटे दर्जे का है, भारी धनराशि का नहीं है। परन्तु अफसोस इस बात का है कि यह भ्रष्टाचार पीड़ित आदमी से किया जाता है। चोरी, डकैती, लूट में मुन्शी जी द्वारा रिपोर्ट दर्ज कराने पर मांगी जाने वाली राशि हो या फिर छोटे-छोटे यातायात से सम्बन्घित भ्रष्टाचार जिसमें चालान न करके 50-100 रूपये लेने की बात आती है, दोनों मामलों में गरीब आदमी अपना पेट काटकर पैसा देता है, इसलिये उसे खलता है। खुली सड़क पर ली गई धनराशि पीड़ित व्यक्ति अथवा आम आदमी से ली जाती है जो सबको दिखती है इसलिये चर्चा का मुद्दा बन जाती है तथा समाज में उसे सबसे अधिक भर्त्सना सहनी पड़ती है। किन्तु जो भारी भ्रष्टाचार बन्द कमरों में होता है, वह दिखता नहीं है, इसलिये आम जनता में उसकी चर्चा कम होती है।

पुलिस में ब्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में यह भी कहा जाता है कि पैसा ऊपर के अधिकारियों तक जाता है, जो सही नहीं है। जब पुलिस कर्मी सड़क पर भ्रष्टाचार करता है तो अपने को सही ठहराने के लिये इस तरह का प्रचार करता है। अधिकारी स्तर पर बहुत ही कम ऐसे लोग होते हैं, जो इस तरह के निकृष्टतम् भ्रष्टाचार में लिप्त होते हों और अपने अधीनस्थों से पैसे वसूलते हों या पैसा वसूलने के लिये कहते हों। सामान्यत: सभी अच्छे पुलिस अधिकारी इस तरह का भ्रष्टाचार रोकने का अपने दिल से प्रयास करते हैं परन्तु कुछ प्रतिशत लोग इस विभाग में भी ऐसे हैं जो ऊँचे पदों पर बैठे हैं और इस तरह के भ्रष्टाचार में भागीदार होते हैं।

thullaदिल्ली में पुलिस को '' ठुल्ला '' कहकर पुकारा जाता है- यह शब्द सम्भवत: निठल्ला से बना है- लोगों को चौराहे पर पुलिस कर्मी बैठे दिखायी देते हैं- उन्हें लगता है कि वे कुछ नहीं करते- पर यह सोच सही नहीं है। अखिल भारतीय आंकड़ों के अनुसार एक पुलिस कर्मी औसतन 13 घण्टे की डयूटी करता है। 12 घण्टे की डयूटी तो उसकी कागजों पर ही लगती है- फिर बहुत सारी आपातकालीन डयूटीयां भी उसे करनी पड़ती हैं। पुलिस कर्मी और चाहे जो हो, पर वे निठल्ले तो बिल्कुल भी नहीं हैं।

पुलिस के सामने समस्याएँ भी बहुत हैं-

police00सबसे पहले अत्यधिक लम्बी डयूटी : वो भी अति कठिन परिस्थितियों में-फिर उनके काम करने और रहने के हालात भी अत्यन्त विषम हैं। पुलिस कर्मियों के काम की प्रकृति भी ऐसी है कि वे सारा समय तनाव में रहते हैं- दिन भर किसी न किसी से उलझना पड़ता है- ऐसे में उनका स्वभाव अत्यन्त चिड़चिड़ा हो जाता है। चाहे वाहन चैकिंग हो या बाहरी व्यक्तियों का सत्यापन अथवा वारण्टों की तामीली । इन सभी कार्यो में पुलिस को आलोचना का ही शिकार होना पड़ता है । बिना लाइसेंस के वाहन चलाने वाले स्वयं तो कानून का उल्लघंन करते हैं किन्तु चालान की कार्यवाही पर एक नहीं अनेकों लोग पुलिस को ही चालान करने का दोषी मानते हैं। पुलिस के कार्यों की प्रकृत्ति ही ऐसी है कि उसकी आलोचना होना स्वाभाविक है।

बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में पुलिस में बढ़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। पूरे देश में दिनों-दिन शहरीकरण, औद्यौगीकरण बढ़ रहा है, जिस कारण अपराध बढ़ रहा है साथ ही साथ कानून व्यवस्था की समस्यायें भी बढ़ रही हैं। विकसित देशों में जहाँ प्रति एक हजार जनसंख्या पर सात से आठ पुलिस कर्मी तैनात हैं, वहीं हमारे देश में यह संख्या 1.3 के आस-पास है। स्वाभाविक है कि हमारे देश में पुलिस बहुत ही ज्यादा काम के दबाव में रहती है।

पुलिस कर्मी जनता की सुरक्षा के लिये जहां जाड़ों की रातों में गली कूचे में सीटी बजाते घूमता फिरता है, वहीं जून की तपती हुई लू में चौराहों पर खड़ा होकर यातायात नियंत्रित करता है। जब बाकी सभी लोग अपने घरों में त्योहार मनाते हैं तब भी वह अपने परिवार को छोड़कर चौराहों पर डयूटी करता है । लोगों के त्यौहार शांति से मनें, इसके लिये वह अपने त्यौहारों को भूल जाता है। यह एक प्रकार की बिडम्बना ही है कि इस प्रकार की कठिन परिस्थितियों में अपने दायित्वों का निर्वहन करने वाला पुलिस कर्मी कभी-कभी पुलिस की एक छोटी सी गलती से पूरे समाज के गुस्से का शिकार बन जाता है । काश उसके त्याग के अनुरूप सामाजिक प्रतिष्ठा ही उसे मिल पाती...!

एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि पुलिस कर्मियों की कोई यूनियन नहीं होती, उन्हें हड़ताल का अधिकार नहीं होता। आम तौर पर प्रतिवर्ष चार से पाँच प्रतिशत पुलिस कर्मी निलम्बित होते हैं और दण्ड पाते हैं, जबकि अन्य किसी विभाग में एक हजार में से एक आदमी को दण्ड देना भी टेढ़ी खीर साबित होता है। अन्य विभागों में बड़े-बड़े अनुशासनहीनता एवं भ्रष्टाचार से सम्बन्धित प्रकरणों में यूनियनें आगे आकर हड़ताल, नारेबाजी आदि करने लगती हैं। यहीं कारण है कि स्कूलों में अध्यापक नहीं आते, अस्पतालों में डाक्टर नहीं मिलते, कार्यालयों में स्टाफ एक जगह बैठकर गप्पें लड़ाने में व्यस्त रहता हैं, फिर भी आम आदमी उन्हें भ्रष्ट और असमाजिक नहीं समझता।bhai_firing[3]

पुलिस के सामने सबसे बड़ी समस्या तो उनकी जरूरत से ज्यादा जवाबदेही की है। उन्हें एक से ज्यादा स्तरों पर जिम्मेदार ठहराया जाता है। कभी-कभी तो लगता है कि आज के परिवेश में हर कोई पुलिस का बॉस है- चाहे वो वरिष्ठ आई0ए0एस0 अधिकारी हो या वरिष्ठ आई0पी0एस0 अधिकारी... चाहे राजनीतिज्ञ हों या न्यायिक अधिकारी- सभी के प्रति पुलिस जवाबदेह है। फिर जितने भी माननीय न्यायिक आयोग हैं- उन सब के प्रति भी पुलिस जवाबदेह है। आज की तारीख सबसे अधिक जवाबदेही तो मीडिया व जनता के प्रति है। कभी-कभी यह सब इतना ज्यादा हो जाता है कि एक अदना सा पुलिस कर्मी इन सब के बोझ से अपना नियंत्रण खो बैठता है और फिर सचमुच की गलतियॉ कर बैठता है।

(अशोक कुमार)

बुधवार, 29 सितंबर 2010

जेलर जेल में- वृद्ध के साहस ने दिखाया रंग

जेलर जेल में

भौतिकता, अवसरवादिता, मूल्यहीनता

सबके बोझ तले मरती हुई मानवता-

कोई नई बात नहीं है।

युगों-युगों से होता आया है यह तो...!

आज के युग की विकट समस्या

यही है कि...

जीवन की इस अंधी दौड़ में

यही सब तो जीवन मूल्य बन गये हैं!

और...

जो इस दौड़ में शामिल नहीं हो पाते

मूर्ख और पागल कहलाते हैं!

('मेरी डायरी' से - फरवरी, 1988)

cuffs to jailbar हमारी जेलें अपराधियों को सुधारने के लिये बनी हैं। ये आपराधिक न्याय-प्रणाली का एक महत्वपूर्ण अंग है और माना जाता है कि अपराध रोकने में उनकी मुख्य भूमिका है। परन्तु हाल के कुछ वर्षो में देखने में आया है कि कुछ जेलें बड़े अपराधियों के लिये सुरक्षित ऐशगाह बन गई हैं। बड़े अपराधियों को ऐसी जेलों के अन्दर सब तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हो जाती हैं। कई जगहों पर अपराधी जेल के अन्दर से ही अपराधिक गैंगों का संचालन भी करते हैं । आपराधिक गतिविधियाँ करते वक्त उन्हें पुलिस मुठभेड़ व प्रतिद्वद्वियों से खतरा भी नहीं रहता । आज-कल तो कुछ अपराधी जेल में ही रहते हुए चुनाव भी लड़ते हैं।

जेल में जाने वाले सभी लोग खूँखार अपराधी नहीं होते। कई बार कानून का पालन करने वाले सीधे-सादे नागरिक भी पारिवारिक झगड़े या सम्पत्ति के विवाद या सड़क दुर्घटना आदि कारणों से जेल में पहुँच जाते हैं। ये लोग जेल के अन्दर रह रहे संगठित अपराधिक माफियाओं का शिकार बन जाते हैं। खूँखार अपराधी इनको जेल के अन्दर ही पीटने की धमकी देकर इनके परिवारों से काफी मोटी रकम भी ऐंठ लेते हैं। ये सब सौदेबाजी जेल के अन्दर ही हो जाती है उसे अंजाम बदमाशों के बाहर बैठे गुर्गे दे देते हैं। और इस तरह से जेल में बैठे शातिर बदमाश वसूली भी कर लेते हैं और उनके ऊपर कोई इल्ज़ाम भी नहीं आता क्योंकि उनका जेल में बन्द होना कानूनी रूप से उनकी सहायता करता है। कभी-कभी तो जेल का स्टाफ भी इन खूँखार अपराधियों से डरकर चुप्पी साध लेता है। कहीं-कहीं पर इन अपराधियों से जेल के स्टाफ की मिलीभगत भी प्रकाश में आयी है।

एक दिन जब मैं एक जनपद में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त था तो एक बूढ़ा आदमी मेरे कार्यालय में आया। उसकी कमर झुकी हुई थी और वह एक लाठी का सहारा लेकर चल पा रहा था। वह गांव का एक छोटा-सा दुकानदार था, जो मटमैला कुर्ता और कई जगह से फटी धोती पहने हुए था। इस व्यक्ति ने बिना किसी डर के जिस दृढ़ता के साथ अपनी बात बतायी, वह सचमुच काबिले तारीफ थी ।

उसने बताया कि उसके गांव के पास का ही एक अपराधी जिला जेल में बन्द था और वह उसको लगातार धमकी भरी चिट्ठियाँ भेज रहा था। इन चिट्ठियों में बदमाश ने उससे एक लाख रूपये की माँग की थी और रुपया न देने पर उस वृध्द व्यक्ति को या उसके पोते को मारने की धमकी भी दी थी।

सबसे पहले तो मुझे इस बात पर हैरानी हुई कि एक इतने गरीब-से दिखने वाले व्यक्ति से भी कोई फिरौती माँग सकता है। जब मैने उससे इस बारे में सवाल पूछे तो मेरी समझ में आ गया कि मेरी हैरानी गलत थी । क्योंकि वसूली हर स्तर पर हो सकती है और जब आदमी को जान के लाले पड़े हों तो गरीब-से-गरीब आदमी भी अपना घर, दुकान जमीन अथवा गहने बेचकर, अपराधियों के कहर से बचने के लिये एक या दो लाख रुपये जुटा ही सकता है ।

दुख की बात तो यह थी कि यह वसूली का धंधा अपराधियों को सुधारने के लिये बनी जेल से ही चलाया जा रहा था। मैं यह भी सोच रहा था कि पैसा कहॉँ और किसको दिया जाएगा। मैंने बूढ़े बाबा से पूछा तो उसने बताया कि पैसे को जेल में ही दिया जाना है। यह सुन कर मैं तो दंग ही रह गया। बड़े और ख्रूँखार अपराधी जेलों में रहकर आपराधिक गतिविधियों का संचालन करते हैं, यह तो मैने सुना था, किन्तु जेल के अन्दर ही पैसा भी इकट्ठा किया जा रहा है, ऐसी शर्मनाक और आश्चर्यजनक बात मैंने पहली बार सुनी थी।

हमारे जेलों में व्यवस्था इस हद तक बिगड़ चुकी है, यह सुनकर मैने इस गन्दगी को जड़ से मिटाने का संकल्प लिया।

मैंने कुछ तय करने के बाद उस बृध्द व्यक्ति से कहा, ''बाबा, हम इन अपराधियों को पकड़ने के लिए जाल बिछा सकते हैं परन्तु इसमें आपकी जान को बहुत खतरा होगा। आपको साहस और हिम्मत का परिचय देना होगा। आपकी मदद के बिना हम ये सब नहीं कर पाएंगे।''

बृद्ध कुछ देर तक सोचता रहा और साहस बटोर कर बोला कि 'मैं आपका पूरा साथ दूंगा। क्षेत्र वासियों को इन बदमाशों की बदमाशी से छुटकारा दिलाने के लिये मुझे किसी भी हद तक जाना पड़े, मैं पीछे नहीं हटूंगा ।' तब मैने उसे अपनी पूरी योजना समझायी, जिससे वह बदमाशों से सम्पर्क कर योजना के अनुसार जेल में पैसा पहुँचाने का दिन व समय आदि निर्धारित कर सके।

निर्धारित तिथि पर बृध्द समय से दो घंटा पहले ही आ गया और अपने साथ नोटों की गड्डी भी लेता आया। इस बार उसके चेहरे पर आत्मविश्वास साफ झलक रहा था और उसकी चाल में भी दृढ़ता थी। वह पिछली बार की तरह झुका हुआ या टूटा हुआ भी नहीं लग रहा था। मैने चुटकी लेते हुए कहा, ''बाबा, आज तो आप जवान लग रहे हो!''

बृध्द ने अत्यन्त भावुक होकर कहा, ''साहब, आपने ध्यानपूर्वक मेरी पूरी बात सुनी और उसकी गम्भीरता को समझ कर मेरी सहायता करने के लिये योजना बनाई, यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। आपकी बातों से तो मुझे मानो ज़िंदगी का एक नया मकसद ही मिल गया... इस बूढ़े आदमी की जिंदगी यदि इलाके के लोगों को इस तरह के बदमाशों से छुटकारा दिला सकने में काम आ जाय तो मैं अपना जीवन धन्य समझूंगा।''

मुझे भी ऐसा लगा कि यह बृध्द सिर्फ अपने ही लिये नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिये मददगार साबित हो सकता है। ऐसे बदमाश को पकड़वा कर समाज को इस गन्दगी से छुटकारा दिला सकता था। इस दुबले-पतले और कमजोर व्यक्ति द्वारा दिखाये गए साहस को देखकर मन ही मन मैं उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करने लगा। जो आदमी कल तक इतना डरा व भयभीत दिख रहा था, वही आज इतना निडर होकर सीना ठोक कर खड़ा था और कह रहा था कि समाज को ऐसी बुराइयों से छुटकारा दिलाने के लिये उसे अपनी जान भी गँवानी पड़े तो उसे कोई परवाह नहीं होगी।

हमने अपराधियों से मिलने के बहाने उस बृध्द के साथ जाने वाली पुलिस पार्टी को सादे कपड़ों में तैयार किया। नोटों की गड्डी पर निशान लगाये और फिर इस पार्टी को उस आदमी के साथ जेल भेज दिया। सामान्यत: जेल में प्रवेश करने के नियम काफी कड़े होते हैं। पहले तो मिलने की अनुमति लेनी पड़ती है, अनुमति मिलने के बाद आदमी को पूरा विवरण विस्तार से जेल के रजिस्टर में अंकित करना पड़ता है, कितने बजे प्रवेश किया, कितने बजे बाहर निकले, किससे मिलना है आदि-आदि।

पुलिस पार्टी को यह सब विवरण अंकित करना पड़ा, किन्तु उनके साथ ही गये बृध्द को, जो नोटों की गड्डी लेकर गया था, किसी भी तरह की औपचारिकता पूरी नहीं करनी पड़ी। उसको जेल का स्टाफ रजिस्टर में लिखा-पढ़ी किये बिना ही सम्बन्धित अपराधी से मिलाने के लिये ले गया। इससे साफ जाहिर था कि जेल के स्टाफ को इस वसूली के धंधे की जानकारी पहले से थी और उनकी भी इसमें मिली-भगत थी ।

अपराधी ने उससे नोटों की गड्डी ले ली और उसको आश्वस्त किया कि उसे और उसके पोते को डरने की कोई जरूरत नहीं है। वह खुद तो उनको कुछ कहेगा ही नहीं, बाकी अपराधियों को भी कुछ नहीं करने देगा। फिर उसने नोटों की गड्डी जेल के ही किसी स्टाफ को दे दी, जो सम्भवत: इसके बाद बँटवारे की व्यवस्था करने वाला था ।

इस समय तक पुलिस पार्टी ने अपनी सही पहचान नहीं बताई थी। उन्होंने मुझे फोन पर पूरा घटनाक्रम बताया तथा अगले निर्देश माँगे। मैंने उनसे कहा कि वे अपनी पहचान को सार्वजनिक कर दें और सभी सम्बन्धित लोगों से पूछतांछ करें कि कैसे बिना प्रविष्टि के इस बृध्द को जेल के अन्दर आने की अनुमति दी गई ? पैसा जेल के अन्दर क्यों पहुँचने दिया गया ? कैसे पैसा लिया गया और अब जेल के कर्मचारी के पास ही रखा है ? जेल मैनुअल के प्रावधानों का पालन क्यों नहीं किया गया ?

पुलिस पार्टी ने उपरोक्त सवालों पर जेल स्टाफ से गम्भीरता से पूछताछ की। उनकी पूछताछ से पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि इस पूरे अपराध में जेल का स्टाफ भी सम्मिलित था, क्योंकि उनकी सहमति के बिना ऐसा सम्भव ही नहीं था ।

अभी तक तो मैं पुलिस अधिकारी होने के नाते पुलिस कर्मियों के खिलाफ जो शिकायतें मुझे मिलती रहती थी, जिनमें सत्यता पाये जाने पर उनके विरूद्व कार्यवाही करता था, किन्तु जेल के स्टाफ द्वारा अपने छोटे-छोटे निजी स्वार्थो की पूर्ति हेतु समाज को कितनी बड़ी क्षति पहँचाई जा रही थी, यह मैने पहली बार देखा था। कुछ सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के इस तरह के भ्रष्ट आचरण व क्रिया-कलापों से लोगों का पूरी न्याय व्यवस्था या प्रशासन से विश्वास ही उठ जाता है ।

मैने कठोर निर्णय लेते हुए मौके पर इस अपराध में शामिल जेल के सभी कर्मचारियों एवं जेलर को भी अवैध वसूली की धाराओं में गिरफ्तार करने के निर्देश दिए। यह शायद जेल के इतिहास में पहली बार हुआ होगा कि जेल का एक जेलर स्वयं ही अभियुक्त के रूप में उसी जेल में बन्द हुआ हो। जेल की स्टाफ-यूनियन ने प्रदेशव्यापी हड़ताल की धमकी दी किन्तु कानून तो अपना काम करेगा ही। अन्तत: पूरी विवेचना के बाद पर्याप्त साक्ष्य पाये जाने पर बदमाशों एवं जेल के स्टाफ़ के विरुध्द चार्जशीट न्यायालय भेजी गई ।

उसके बाद उस जेल में जो जेलर आये वह बहुत कड़क थे। बहुत जल्द ही उन्होंने जेल की कार्यप्रणाली को सुधार दिया और अपराधियों को अहसास कराया कि जेल से किसी भी हालत में अपराध नहीं होने दिया जाएगा ।

वह बृध्द सचमुच बहुत खुश था कि उसने समाज की रक्षा के लिए एक मिसाल कायम की थी। ...

(अशोक कुमार)

सोमवार, 13 सितंबर 2010

कोई भी दिवानी मामला बिना पुलिस की मदद के नहीं सुलझ सकता…

भू-माफिया

पाहोम को अपना सपना याद आया और उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी,

उसकी टांगे जवाब दे गई और वो गिर पड़ा ।

चीफ बोला ''कितना अच्छा आदमी था ! उसने कितनी जमीन इकठ्ठी की थी''

पाहोम का नौकर दोड़ते हुये आया और उसने उसे उठाने की कोशिश की

परन्तु पाहोम के मुँह से खून निकल रहा था और वो मर चुका था ।

नौकर ने फावड़ा उठाया और पाहोम के लिये कब्र खोदी-

और उसे दफना दिया ।

उसे सिर से पाँव तक सिर्फ छ: फुट जमीन की ही जरूरत थी ।

टॉलस्टाय की कहानी 'हाऊ मच लैंड डज ए मैन नीड' की आखिरी पंक्तियाँ

 

पुलिस में सबसे ज्यादा शिकायतें जमीन संबंधित झगड़ों की आती हैं। किसी ने किसी की जमीन दबा ली है तो कोई किसी को रास्ता नहीं दे रहा है। किसी ने दूसरे की जमीन पर ही दीवार बना दी है तो किसी ने दीवार ढहा दी है आदि-आदि...। कहीं भाई-भाई का झगडा है तो कही पड़ोसी-पडोसी का। सारे-के-सारे जमीन के झगड़े ! ये कोई आज के झगड़े नहीं हैं, ये तो सदियों से चले आ रहे हैं।

भू-माफिया १.htm पुराने जमाने से अपराध के तीन मुख्य कारण माने जाते रहे हैं : 'जर, जोरू और जमीन'। परन्तु जब से जमीन के भाव बढ़ गये हैं, इसमें एक नया पक्ष जुड़ गया है और वह है गुण्डों, बदमाशों और माफियाओं का धनबल और बाहुबल का यह एक ऐसा अपवित्र गठजोड़ बनता गया है जो जमीन कब्जाने में इतना माहिर हो गया है कि वह पुलिस और कोर्ट-कचहरी से भी नहीं डरता। भू-माफिया आम-आदमी की इस कमजोरी का फायदा उठाता है कि पुलिस और कोर्ट-कचहरी की शरण में जाने पर इतनी कानूनी पेचीदगियाँ झेलनी पड़ती हैं कि इससे तो अच्छा है, कुछ और पैसा खर्च करके समझौता कर लिया जाय।

माफिया का अपना तंत्र और अपनी एक व्यवस्था विकसित होती चली गई है। ये लोग जमीनों पर कब्जा करवाने, कब्जा खाली करवाने, फर्जी कागजात, फर्जी बैनामा, फर्जी वसीयत आदि बनवाने में माहिर होते हैं । रजिस्ट्री ऑफिस तक भी इनकी पहुँच होती है । कभी-कभी ये लोग दूसरे लोगों की जमीन की भी रजिस्ट्री करवा डालते हैं और कभी एक ही जमीन की दो-तीन रजिस्ट्री करवा लेते हैं । 'खोसला का घोंसला' फिल्म की कहानी इसी व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा है।

प्राय: देखने में आया है कि ऐसे मामलों में पुलिस की भूमिका बहुत सकारात्मक नहीं होती। पैसे और प्रभावशाली लोगों के दखल के कारण पुलिस भी जाने-अनजाने माफिया के ही हितों को बढ़ावा दे रही होती है। पुलिस की भूमिका के दो पहलू हैं जो कि पीड़ित के खिलाफ़ जाते हैं। पहला तो यह कि जब झगड़ा होगा तो पुलिस दोनों पार्टियों को बन्द कर देगी । पुलिस का यह सिध्दांत गुण्डे-बदमाश और माफियाओं को खूब रास आता है क्योंकि माफिया अपने साथ गुण्डे और बदमाशों को रखते हैं, जो जेल जाने से नहीं डरते। उन्हें इसी काम के तो पैसे मिलते हैं, जब कि आम आदमी जेल जाने के नाम से ही काँपने लगता है। अंतत: परेशानी तो पुलिस को ही झेलनी पड़ती हैं क्योंकि भू-माफिया का उद्देश्य ही यह रहता है कि आम आदमी थक हार कर औने-पौने दामों में सम्पत्तिा बेचकर भाग जाए ।

cartoon (1) दूसरी बात जो पुलिस की छवि पर बट्टा लगाती है, वह है पुलिस का ऐसा रवैया जिसके अनुसार भूमि के मामलों में पुलिस यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है कि 'यह तो पुलिस केस है ही नहीं, दीवानी का मामला है, इसके लिए आप कोर्ट मे जाकर केस लड़िए'। इसके पीछे भी धनबल या प्रभावशाली लोगों का हाथ होता है। इस तरह के बहाने पुलिस अपनी सुविधानुसार बनाती है जब उसे माफिया का पक्ष लेना होता है। मामला दीवानी का है अथवा फौजदारी का, इस बात का फैसला आम तौर पर केस के तथ्यों पर आधारित नहीं होता बल्कि कई प्रकार के निहित स्वार्थ इसमें सम्मिलित होते हैं। वास्तविकता यह है कि आज की तारीख में कोई भी दीवानी मामला बिना पुलिस की मदद के नहीं सुलझ पाता है। यदि कोई किसी की जमीन को फर्जी वसीयत के आधार पर बेच दे तो यह साफ-साफ धोखाधड़ी का आपराधिक मामला हुआ परन्तु उसे न्यायालय का मामला कह कर टाल देने से पीड़ित को कभी न्याय नहीं मिल पाता। इसी प्रकार यदि कोई पार्टी गुण्डों की सहायता से किसी के घर का सामान उठवाकर बाहर फैक दें तो यह साफ-साफ आपराधिक मामला हुआ किन्तु ऐसे लोग धन-बल और बाहुबल से इस तरह के मामले को भी दीवानी का मामला बताकर टालने के चक्कर में रहते हैं।

एक बार एक बूढ़ा आदमी अपनी पुत्रवधू के साथ मुझसे मिलने आया। वह केन्द्रीय अर्धसैनिक बल से इन्सपेक्टर के पद से रिटायर हुआ था। उसने पूरी ज़िन्दगी ईमानदारी से नौकरी की थी और रिटायरमेंट के बाद जीपीएफ, ग्रेच्युटी आदि मिलाकर उसके पास कुल बारह लाख रुपए जमा हुए थे। जिंदगी भर पैरा-मिलिट्री की भाग-दौड वाली नौकरी खत्म करके अब वह किसी एक जगह पर शांति से घर बनाकर रहना चाहता था ताकि पैरामिलिट्री की तरह उसे रोज-रोज अपना बोरिया-बिस्तर न उठाना पड़े।

जब वह अपने लिए जमीन की तलाश कर रहा था, एक जमीन बेचने वाला ग्रुप उससे टकराया। इस ग्रुप ने जो जमीन उसको दिखायी वह उसको अच्छी लगी क्योंकि वह उसकी सभी जरूरतों के अनुरूप थी और दाम भी आस-पास की जमीनों के हिसाब से कुछ कम थे। अन्तत: 12 लाख में सौदा पक्का हो गया और उसने पैसा देकर रजिस्ट्री भी करा ली।

रिटायर्ड इन्सपैक्टर जब जमीन पर कब्जा लेने गया तो उस जमीन पर कोई और बैठा हुआ था। उसने उनके कागज़ात देखे और रजिस्ट्री आफिस से मालूम किया तो पता चला कि सचमुच वह जमीन उसी के नाम थी, जो जमीन पर कब्जा किये हुए था। जिन लोगों ने उसके नाम रजिस्ट्री की थी उनके नाम वह जमीन थी ही नहीं। तब जाकर उसे अपने साथ हुई धोखाधड़ी का पता चला। शुरू में उसने जमीन के मालिक तथा कब्जेदार से झगड़ा करने का प्रयास किया किन्तु जल्द ही उसकी समझ में आ गया कि जमीन के मालिक की कोई गलती नहीं है बल्कि भू-माफियाओं द्वारा उसके साथ बारह लाख रूपये की धोखाधडी की गई है। धोखाधड़ी भी इतनी सफाई से की गई थी कि भोले-भाले इन्सपैक्टर को इसका पता ही नहीं चल पाया। ऐसे में वह भू-माफिया के पास पैसा वापस लेने गया किन्तु इस बार उनके तेवर ही अलग थे। उन्होंने पैसा देने से साफ इन्कार कर दिया और इन्सपेक्टर से कहा, ''हाँ, जमीन उस कब्जेदार के नाम भी है और तुम्हारे नाम भी है... यदि तुममें हिम्मत है तो जमीन पर कब्जा कर लो।''

सेवानिवृत्त निरीक्षक ने क्षेत्र के संभ्रान्त लोगों से सम्पर्क कर दबाव बनाने का प्रयास किया ताकि उसका पैसा उसे वापस मिल जाय किन्तु भू-माफिया की पहुँच उन लोगों से कहीं ऊपर तक थी और फिर माफिया के गुण्डों की वजह से कोई भी उनसे पंगा नहीं लेना चाहता था। इलाके के सरमायेदार लोगों ने मामले में दखल देने से मना कर दिया और इंसपैक्टर से कहा कि अच्छा हो, वह पुलिस महकमे के पास जाए ।

पुलिस थाने में यह भू-माफिया ग्रुप पहले ही अपनी पकड़ बना चुका था, क्योंकि यह उनका पहला केस नहीं था। इस तरह के कई लोगों को पहले भी वह धोखाधड़ी का शिकार बना चुके थे। जैसा कि मैं पहले भी स्पष्ट कर चुका हूँ, धनबल व बाहुबल से चीजें दबा दी जाती हैं। और जब यह थका-हारा बूढ़ा आदमी पुलिस थाने पहुँचा तो उसको वही रटा-रटाया जवाब मिला। थानेदार ने बताया कि यह तो दीवानी का मामला है, इसमें पुलिस कुछ नहीं कर सकती। उसको जाकर न्यायालय का दरवाजा खटखटाना चाहिए और वहीं से उसको न्याय मिलेगा। अब उसने वकीलों के चक्कर काटे। वहाँ उसकी समझ में आया कि न्यायालय में तो ऐसे मामले बीसियों सालों तक लटके रहते हैं। जब तक उसे कब्जा मिलेगा तब तक तो उसकी जिन्दगी ही खत्म हो चुकी होगी। कुल मिलाकर, वह समझ चुका था कि न्यायालय जाने की न तो उसकी हिम्मत थी और न ही आगे जाने के लिये उसके पास पैसा था।

बूढ़ा आदमी जब चारों तरफ से न्याय की उम्मीद खो चुका था, तब उसे किसी ने मुझसे मिलने की सलाह दी और बताया कि वहाँ जाकर हो सकता है कि उसे कोई रास्ता मिल जाय। उस वृध्द ने अपनी सारी आपबीती सुनाई। लगभग गिड़गिड़ाते हुए उसने कहा, ''साहब, मेरी जिन्दगी-भर की कमाई भू-माफियों ने हड़प ली है। न मुझे जमीन मिली है, न ही मेरा पैसा मुझे वापस मिला है। मैं सब जगह दौड़ लगाकर थक-हार चुका हँ । अब आप ही मेरी आखिरी उम्मीद हैं।''

उसकी पूरी बात सुनकर मैं समझ गया था कि यह आदमी धोखाधड़ी का शिकार हो चुका है। थानाध्यक्ष ने जिस तरह से उसके साथ मीठी बातें करके उसे न्यायालय की शरण में जाने की सलाह दी थी, उससे स्पष्ट था कि माफिया ने अपनी पैठ थाने में भी बना रखी थी। मेरी नजरों में यह केस साफ-साफ भारतीय दण्ड संहिता की धारा चार सौ बीस के अन्तर्गत अपराध की श्रेणी में आता था। इस धारा में कुल मिलाकर दो ही बातें होनी आवश्यक हैं। पहली, किसी को गलत फायदा पहुँचाने की नीयत एवं दूसरी, किसी के साथ धोखाधड़ी होना। इस केस में स्पष्ट झलक रहा था कि इस आदमी के साथ बारह लाख की धोखाधड़ी की गई थी। मैंने उसके द्वारा दिखाये गए सभी कागज़ों का गहराई से अध्ययन किया और उसकी बात को सच पाया। उस बेचारे की जिन्दगी भर की गाढ़ी कमाई माफियाओं ने एक ही बार में हड़प ली थी और उसे दर-दर की ठोकरें खाने के लिये बेसहारा छोड़ दिया था। इसके अतिरिक्त हर सम्बन्धित व्यक्ति और विभाग उससे अपना पल्ला झाड़ रहा था। मैने सच्चाई का साथ देने का मन बनाया और इस बारे में सोचा कि कैसे माफिया को वैधानिक आधार पर सजा दी जा सकती है। मैंने थानाध्यक्ष को साफ शब्दों में एफ. आई. आर. लिखने हेतु निर्देशित किया यद्यपि उसने मुझको भी गुमराह करने की कोशिश की कि यह तो दीवानी का मामला है, इसमें पुलिस को नहीं पड़ना चाहिए।

पुलिस विभाग में आज भी बहुत बड़ी संख्या में ऐसे अधिकारी हैं जो सचमुच ईमानदार हैं। किन्तु उनकी पकड़ इतनी मजबूत नहीं है कि वह अधीनस्थ पुलिस वालों के पैसे के खेल को अन्दर तक समझ पाएँ। वह सामान्यत: ऐसे निर्देश देते हैं कि जमीन के झगड़ों में पुलिस को नहीं पड़ना चाहिये और ऐसे झगड़ों में दोनों पक्षों का चालान कर देना चाहिए। मेरी नजर में इस तरह का दृष्टिकोण सरासर गलत है क्योंकि ऐसे निर्देर्शो का नीचे के पुलिस अधिकारी अपने निहित स्वार्थो की पूर्ति हेतु उपयोग करते हैं। ऐसे में जहाँ उनको अपना फायदा नजर आता है, वहाँ वे इस लाइन को पकड़ लेते हैं कि पुलिस दीवानी मामले में नहीं पड़ेगी। अन्यथा सच तो यह है कि आज की तारीख में भी पुलिस के दखल के बिना कोई जमीन का झगड़ा सुलझ ही नहीं सकता। इसी तरह, जहाँ साफ दिखाई दे कि एक ओर पीड़ित पार्टी का पक्ष सही है, दूसरी ओर दूसरी पार्टी द्वारा गुण्डों के बल पर जबरदस्ती की गई है, ऐसे में दोनों के विरूध्द कार्यवाही करने का कोई मतलब नहीं बनता। हमें पीड़ित पक्ष की मदद करनी चाहिए और जिन्होंने गुण्डों के बल पर कब्जा किया है या जो अपराधियों की मदद से कब्जा खाली करवाते हैं, उन्हें जेल भेजा जाना चाहिये। पीड़ित पक्ष को पुलिस की सुरक्षा मिलनी चाहिए, न कि दो तरफा कार्यवाही के नाम पर पुलिस द्वारा उत्पीड़न। देखा गया है कि इस तरह के निर्देश देने वाले पुलिस अधिकारी खुद तो ईमानदार होते हैं किन्तु उनके नीचे की पुलिस कितना अपना स्वार्थ साध रही है और कितना पीड़ित पक्ष का उत्पीड़न किया जा रहा है, इस पहलू को वे नहीं जान पाते।

थानाध्यक्ष को इस मामले में एफ. आई. आर. लिखने के निर्देश के कुछ ही घंटों के अन्दर मेरे पास शहर के कई प्रभावीशाली लोगों के फोन आये जिन्होंने यह तर्क देने की कोशिश की कि यह तो दीवानी का मामला है इसलिए पुलिस इसमें क्यों दखल दे रही है। मैं समझ गया था कि मुझ पर दबाव बनाने के लिये ये सभी फोन माफिया द्वारा करवाये गये हैं । अन्तत: मेरे निर्देश पर सभी छ: लोगों के खिलाफ एफ. आई. आर. लिखी गई, जिनमें दो लोग गिरफ्तार भी कर लिये गए। इस माफिया गिरोह का सरगना नोएडा में रहता था। मैंने उसे गिरफ्तार करने के लिये पुलिस पार्टी को नोएडा भेजा किन्तु उसने पैसे के बल पर भीड़ इकट्ठा करके पुलिस पार्टी पर हमला करवा दिया और पुलिस को खाली हाथ लौटना पड़ा। इसी दौरान माफिया सरगना ने तेज तर्रार वकीलों की सहायता से उच्च न्यायालय से गिरफ्तारी पर स्टे भी ले लिया।

इस दौरान रिटायर्ड इंसपेक्टर मुझसे लगातार सम्पर्क बनाए हुए था और उसने ऐसे दूसरे लोगों को भी ढूँढ लिया था जिनके साथ इसी माफिया गिरोह ने धोखाधड़ी की थी। एक दिन वह एक व्यक्ति को लेकर मेरे कार्यालय में आया। उस व्यक्ति के साथ भी इसी तर्ज पर धोखाधड़ी की गई थी। मेरे द्वारा उस व्यक्ति की ओर से भी एफ. आई. आर लिखा दी गई और उच्च न्यायालय में पैरवी करके माफिया गिरोह का गिरफ्तारी-स्टे भी खारिज करवा दिया गया। लगातार कोशिशों के बाद अन्तत: सभी छ: लोग पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिये गए और मामले में आरोप पत्र तैयार कर न्यायालय भेज दिया गया।

इस घटना के ठीक चार साल बाद जब मैं दूसरी जगह स्थानांतरित हो चुका था तथा घटना को पूरी तरह भूल चुका था, एक शाम उसी रिटायर्ड इंसपेक्टर का फोन मेरे पास आया । इस बार उसकी आवाज थकी-हारी नहीं लग रही थी, बल्कि आवाज से खुशी झलक रही थी। उसने मुझे बताया कि धोखाखड़ी का वह केस इतना मजबूत था कि माफिया गिरोह उसे कोर्ट में नहीं झेल पाया और बीच में ही उन्होंने मेरा बारह लाख वापस करके आपसी समझौता कर लिया। उसका पूरा पैसा उसे वापस मिल गया है। पुलिस की वजह से उस माफिया गिरोह के लोग जेल में भी रहे, और जनता के सामने बेनकाब भी हो गए। फोन पर उसकी बातें सुनकर मुझे सचमुच संतोष और खुशी हुई क्योंकि एक शरीफ और ईमानदार आदमी को उसका हक तो मिल ही गया था, सबसे बड़ी बात यह थी कि उसके जैसे जाने कितने और लोग धोखाधड़ी का शिकार होने से बच गए थे।

-अशोक कुमार

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शनिवार, 30 जनवरी 2010

मैने आई.पी.एस. क्यों चुना…!

उनका ये कहना, ‘जनता की सेवा करो'

सिर आँखों पर...

किन्‍तु हमारा कहना , ‘पहले खुद की सेवा तो कर लो'

और अच्‍छा है!

उनका ये कहना, ‘समग्र क्रांति से समाज को बदल डालो'

बहुत अच्‍छा है...

किन्‍तु हमारा कहना, ‘परम्‍पराओं को बनाए रखो,

लीक पर चलते जाओ, यथास्‍थिति में ही भलाई है'

और भी अच्‍छा है!

उनका ये कहना, ‘देश का विकास होगा तभी

गरीब जनता से जब खुद जुड़ोगे'

किन्‍तु हमारा कहना, ‘देश के विकास से हमें क्‍या लेना...

खुद का विकास हो जाए, यही बहुत है!'

‘‘जुड़ने दो हमें गोरे साहबों से पहले,

परम्‍परा हैं वो हमारी,

जड़ें हमारी हैं इम्‍पीरियल पुलिस में...

कैसे बन जाएँ हम जनता जैसे?

उनके तो माई-बाप हैं हम!

साहब हैं हम!''

 

(इस कविता में ‘उनका' शब्‍द भारतीय पुलिस सेवा के आदर्शवादी अधिकारियों के लिए प्रयुक्‍त किया गया है तथा 'हमारा' शब्‍द का प्रयोग उन पुलिस अधिकारियों के लिए किया गया है, जो आज भी अपनी जड़ें ब्रिटिश समय की इम्‍पीरियल पुलिस में मानते हैं और खुद को जनता के सेवक के बजाय ‘साहब' समझते हैं।)

(‘मेरी डायरी' से - 15 जनवरी, 1990)

सेवक नहीं, साहब हैं हम…

पुस्‍तक को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा इसकी पृष्‍ठभूमि समझने के लिए अतीत में जाना आवश्‍यक प्रतीत होता है। मैंने हरियाणा के ग्रामीण परिवेश से उठकर आई.आई.टी. दिल्‍ली में इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्‍त की। गाँव से आई.आई.टी. तक के सफर ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि भारत-वर्ष दो परस्‍पर विरोधी धाराओं में विकसित हो रहा है। एक तरफ तो आगे बढ़ता हुआ ‘इण्‍डिया' है जहां अंग्रेजीदाँ पब्‍लिक स्‍कूलों में शिक्षा ग्रहण कर बचपन से ही साहबी ठाट-बाट में पले धनी और प्रभावशाली लोग हैं...बड़ी-बड़ी गाड़ियों, स्‍टार-होटलों की चकाचौंध भरी आयातित संस्‍कृति को वायरल-संक्रमण की तरह तेजी से फैलाते लोग हैं जिन्‍हें अपनी मातृभाषा बोलने और भारतीय कहलाने में भी शर्म आती है... जो ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं कि अपने इण्‍डिया की बेहतर शिक्षा पद्धति का फायदा लेने के बाद इस देश की गर्मी, धूल और गरीबी से छुटकारा मिले और वे जितनी जल्‍दी हो सके इस धरती से अलविदा कहें... विकसित देशों में भाग जाएँ। दूसरी तरफ ‘भारत' में रहने वाले ऐसे करोड़ों देशवासी हैं, जिनके पास रहने को मकान नहीं, खाने को एक जून की रोटी नहीं और पहनने को कपड़ा नहीं! देश के कुछ हिस्‍सों में तो आजादी के बासठ साल बाद भी बिजली, पीने का पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। ऐसे लोग चपरासी तक की सरकारी नौकरी मिल जाने को अपना सबसे बड़ा सौभाग्‍य समझते हैं जबकि अपने गाँव-घरों में रहना उन्‍हें कतई गवारा नहीं।

आई.आई.टी. दिल्‍ली में रहते हुए मैंने देश के इस खण्‍डित विकास को बहुत नजदीक से देखा और इसलिए शुरू में ही संकल्‍प लिया कि अपने अधिकांश साथियों की तरह विदेश जाने का सपना कभी नहीं पालूंगा क्‍योंकि विदेश जाने को मैं उन दिनों ‘ब्रेन-ड्रेन' समझता था। यद्यपि बाद में मैंने देखा कि विदेश में गए आई.आई.टी. के छात्रों ने विदेशों में भारत की छवि को सुधारने में अहम्‌ भूमिका अदा की। मैं तो इंजीनियर बन कर अपने देशवासियों की सेवा करना चाहता था परन्‍तु चौथे वर्ष की शुरुआत में औद्योगिक ट्रेनिंग के दौरान मेरा मन बदल गया। मैंने अपनी इंडस्‍ट्रियल ट्रेनिंग कलकत्ता में ‘उषा फैन्‍ज' बनानेवाली कम्‍पनी में की थी। कलकत्ता की भीड़ भरी, संघर्षपूर्ण जिन्‍दगी... गाड़ियों की चैं-चैं, पैं-पैं... आधुनिक यंत्रों के कलपुर्जों से घिरी मशीनी जिन्‍दगी को देखकर ट्रेनिंग के दौरान मुझे अहसास हुआ कि मैं एक इंजीनियर की सीमित दायरे वाली जिन्‍दगी में सिमट कर रहना नहीं चाहता था।

मैं कोई ऐसी नौकरी करना चाहता था, जिसमें देश सेवा का ज्‍यादा अवसर हो, जिसमें गरीबी में जी रहे करोड़ों लोगों की मदद करने का मौका मिल सके, देश के आम नागरिकों तक पहुँच कर उनकी समस्‍याओं का समाधान किया जा सके! मैं सीध्‍ो आम आदमी से जुड़ कर उनके लिए काम करना चाहता था। ज़िन्‍दगी जहाँ चुनौतियों से भरी हो... जहाँ मुझे अहसास हो कि मेरे काम से लोगों की ज़िन्‍दगी में सीध्‍ो-सीध्‍ो फर्क पड़ रहा है... ऐसी नौकरी, जहाँ क्षमताओं के अनुरूप काम करने का मौका मिले और जहाँ जिन्‍दगी अधिक अर्थपूर्ण हो। अपने सहकर्मियों के साथ विचार-विमर्श के बाद इन अपेक्षाओं की पूर्ति हेतु मुझे भारतीय सिविल सेवाओं के अलावा दूसरा कोई विकल्‍प नहीं दिखाई दिया। मैंने भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा देकर ऊँचे आदर्शों के साथ भारतीय पुलिस सेवा ज्‍वाइन की। ईमानदारी और कर्तव्‍यनिष्‍ठा से देश की सेवा करनी है तथा गरीबों और असहायों की मदद करनी है। हम यह भी सोचते थे कि सिविल सेवा में आने वाले बाकी लोग भी हमारी तरह के आदर्शवादी विचारों वाले होंगे क्‍योकि भारतीय सिविल सेवाओं की परीक्षा की तैयारी के दौरान देशभक्‍ति और लोगों की सेवा करने का जज्‍बा़ मन में और अधिक प्रबल हो गया था।

आई.ए.एस. और आई.पी.एस. दोनों सेवाओं की प्रारम्‍भिक ट्रेनिंग लालबहादुर शास्त्री अकादमी-मसूरी में होती है। अपने ऐसे ही सपनों, संकल्‍पों और आदर्शों से भरे हम लोग मसूरी पहुँचे थे। मसूरी अकादमी पहुँचने पर मुझे पहली ठोकर तब लगी, जब एक दिन खाने की मेज पर किसी साथी ने इस तरह के आदर्शों का खुलेआम मजाक उड़ाया और कहा,  “बॉस, किस दुनिया की बातें कर रहे हो! देश-सेवा, समाज-सेवा जैसी आदर्शवादी बातें तो सिर्फ इंटरव्‍यू में बोलने के लिए होती हैं। भई, हम तो सीध्‍ो-सीध्‍ो पावर, पैसा और स्‍टेटस पाने के लिए इन सेवाओं में आए हैं।''

मुझे तो मानो सॉँप सूँघ गया! मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि कुछ लोग पहले दिन से ही इन सेवाओं को अपने निजी स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए ज्‍वाइन कर सकते हैं। परन्‍तु धीरे-धीरे मैंने हैरान होना छोड़ दिया क्‍योंकि मैंने पाया कि अकादमी में आध्‍ो लोग पहले से ही उच्‍च वर्गीय विकसित परिवारों से आए थे। सामान्‍यतः इनमें से अधिकांश लोग यथास्‍थितिवादी होते थे जिनकी पारिवारिक पृष्‍ठभूमि सम्‍पन्‍न, वैभवशाली और इन्‍हीं सेवाओं से जुड़ी थी। वे लोग इनसे जुड़े नियम-कायदों को पहले से ही जानते थे और ऐसे लोगों को व्‍यवस्‍था का अपने फायदे के लिए इस्‍तेमाल करने में किसी तरह की न तो हिचक महसूस होती थी और न ही शर्म। ऐसे लोग सीध्‍ो-सीध्‍ो पावर, पैसा और प्रसिद्धि पाने के लिए अधिकारी बनते हैं।

परन्‍तु अच्‍छी बात यह थी कि सभी लोग ऐसे नहीं थे, बड़ी तादाद ऐसे लोगों की भी थी जो वास्‍तव में जनसेवा, देशसेवा की भावना लेकर इन सेवाओं में आए थे। उन लोगों का उद्देश्‍य समाज के निचले तबके के लोगों की मदद करना था... वो तबका, जो धर्म, अर्थ, वर्ण या लिंग के भेदभाव के कारण विकास के निचले पायदान पर ही अटका रह गया था।

अकादमी में हमें खाने-पीने, पहनने के साहबी तौर-तरीके सिखाये गए। काँटे और छुरी का कैसे प्रयोग होना है, चम्‍मच को कैसे रखा जाना है, मेज पर कैसे बैठना है आदि-आदि...। इस ट्रेनिंग में कहीं-न-कहीं ब्रिटिश सामंंंतवादी व्‍यवस्‍था की झलक दिखाई देती थी। मुझे ऐसी आशंका हुई कि कहीं हमें साहब बनना तो नहीं सिखाया जा रहा था जिससे कि हम आम जनता से खुद को अलग और खास समझें। हमारे और आम जनता के बीच का ‘गैप' बना रहे। हमारा कुछ ऐसा रुआब हो कि आम आदमी आसानी से हमारे पास आने का साहस न जुटा पाए। यह भी सम्‍भव था कि यह सब हमें इसलिए सिखाया जा रहा हो, जिससे कि हम साहबों वाले माहौल में अपने को बाहरी न समझें, किसी हद तक यह जरूरी भी लगा। यह तो अधिकारी की संवेदनशीलता पर निर्भर करता था कि वह ऐसी साहबियत को अपने अन्‍दर किस सीमा तक आत्‍मसात करते हैं।

आजादी से पहले भारतीय पुलिस सेवा को इम्‍पीरियल पुलिस (आई.पी.) यानी ब्रिटिश सम्राट की पुलिस कहा जाता था। आजादी के बाद इसका नाम बदल कर आई.पी.एस. (भारतीय पुलिस सेवा) कर दिया गया। देश के नीति निर्धारकों की उस समय यह मंशा थी कि भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी आजादी के बाद सचमुच में जनता के सेवक की भूमिका निभायेंगे और उनमें अंग्रेज़ी जमाने की साहबियत की झलक खत्‍म हो जाएगी। वे आम जनता के दुख-दर्द को समझते हुए उनकी सेवा करेंगे। देश को जिस विकास की जरूरत है, जिस नई वैचारिक व प्रशासनिक क्रान्‍ति की आवश्‍यकता है, उसमें भी वे अग्रणी भूमिका निभायेंगे। किन्‍तु शायद ये उम्‍मीदें कुछ ज्‍यादा ही थीं और भारतीय सिविल सेवाओं (आई.ए.एस. और आई.पी.एस.) में आने वाले अधिकांश लोग साहब ही बने रहना चाहते थे।

टे्रनिंग के दौरान अकादमी की ओर से हम लोगों को एक सप्‍ताह के लिए गाँवों के भ्रमण हेतु भेजा जाता है जिसे ‘रैपिड रूरल एप्रेजल' कहा जाता है। इस प्रोगाम के तहत सभी प्रशिक्षणार्थियों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े गाँवों में भेजा जाता है, जिससे कि देश के भावी प्रशासक ग्रामीण भारत के सच को निकट से देख सकें और वहां की समस्‍याओं को देख व समझ सकें। हम लोगों का ग्रुप उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में गया।

बाँदा बुन्‍देलखण्‍ड क्षेत्रा में स्‍थित उत्तर प्रदेश का एक बहुत ही पिछड़ा हुआ जिला है। यह क्षेत्रा काफी बीहड़ और पथरीला है। क्षेत्रा में चारों ओर गरीबी और हताशा का साम्राज्‍य नजर आता है। बाँदा की लाल मिट्‌टी, दूर-दूर तक फैले हुए एल्‍यूमिनियम के पिचके कटोरों की तरह के खाली मैदान, चरम हताशा और अकेलेपन का रोना रोती हुई अभावग्रस्‍त झोपड़ियाँ और युग-युगों से अपने लिए कोई सहारा खोजती काँटेदार वनस्‍पतियाँ और उनके हमशक्‍ल इंसान...।

हम लोग जब जनपद बाँदा के सरकारी डाकबंगले में पहुँचे तो हमारी आवभगत को काफी सरकारी अमला खड़ा था, जो ‘जी, हुजूर, साहब और सर' के बिना बात ही नहीं करता था। उनके व्‍यवहार में इतनी गुलामी झलकती थी कि उसकी हमें न तो आदत थी और न ही अपेक्षा। उनके व्‍यवहार से लगता था कि मानो उन्‍हें लग रहा था कि सचमुच उनके घर पर देश के भावी ‘भाग्‍य विधाता' पहुँचे थे। मानो हम उनकी रियासत के राजकुमार हैं जो बहुत दिनों के बाद अपनी जनता के बीच आए हैं।

हम लोगों को क्षेत्र में घूमने के लिए एक जीप दी गई थी। हमें बाँदा से आगे बरगढ़ नाम के एक गाँव में भेजा गया। साथ ही हमें यह भी सलाह दी गई कि रात में यात्रा न करें क्‍योंकि पूरे बाँदा जनपद में ‘ददुवा' नामक डकैत का आतंक है। ददुवा एक पुराना अपराधी था, जो हत्‍या, डकैती व फिरौती वसूलने के लिए कुख्‍यात था। मगर अपनी जाति का समर्थन प्राप्‍त होने के कारण वह पुलिस की पकड़ में नहीं आ पाता था। मुझे हैरानी हुई कि ऐसे भी डकैत हैं जो पुलिस की पकड़ से दूर हैं और जिनसे प्रशासन भी भय खाता था।

हम लोगों ने अगले छह दिन बरगढ़ और उसके आस-पास के गाँवों में बिताए। पूरा क्षेत्रा घोर गरीबी और उपेक्षा का शिकार था। न पीने के पानी की सुविधा, न बिजली की व्‍यवस्‍था और न खेती योग्‍य जमीन। मिट्‌टी के कच्‍चे घर, आध्‍ो-अधूरे कपड़ों में दौड़ते बच्‍चे, पेड़ की छाँव में बिछी टूटी खाटें, खेती करने के वही पुराने औजार, कहीं-कहीं तो बैलों की जगह जुता हाड़मांस का पिंजर इंसान, लकड़ी के गट्‌ठर ढोती औरतें और पानी से भरी गागर ले जाती बच्‍चियों को देख विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं की धरातली वास्‍तविकता देखने को मिली। वहाँ जाकर यह भी समझ में आया कि क्षेत्रा में आय के दो ही साधन हैं खेती और पत्‍थरों की खदान। इन दोनों पर एक वर्ग-विशेष, मुख्‍य रूप से धनी लोगों का कब्‍जा था। अधिकांश लोग भूमिहीन मजदूर थे जो छोटे-छोटे घरेलू खर्चों के लिए धनी लोगों से ऋण लेते थे और उस ऋण को चुकता करने में ही उनकी जिन्‍दगी बँधुवा मजदूरों की तरह गुजर जाती थी। उन्‍हें गरीबी से छुटकारा मिलने की कोई उम्‍मीद नजर नहीं आती थी। अमीर और गरीब के बीच एक चौड़ी खाई थी जिसे भरना मुमकिन नहीं लगता था।

देश में बँधुवा मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए कानून था, ‘बँधुवा मजदूर अधिनियम'। लेकिन कानून बनाने से तो सामाजिक और आर्थिक विसंगतियाँ खत्‍म नहीं हो जातीं। पूरे जिले में न तो उस कानून का कोई असर नजर आ रहा था और न ही सामाजिक असमानता खत्‍म होने के आसार नजर आ रहे थे। सरकार द्वारा गरीबी उन्‍मूलन के ढेरों कार्यक्रम चलाये गए थे परन्‍तु ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अधिकांश कार्यक्रम सरकारी कर्मचारियों और कुछ विशेष लोगों को ही फायदा पहुँचा रहे थे। जिन लोगों के लिए कार्यक्रम बनाये गए थे, वे अब भी इन कार्यक्रमों के लाभ से अछूते थे।

एक सप्‍ताह तक उस क्षेत्रा में रहकर हम लोग काफी हद तक क्षेत्रा की जानकारी प्राप्‍त करने में सफल हुए। आखिरी दिन जब हम ऐसे ही एक गांव में लोगों से बातें कर रहे थे, एक पच्‍चीस वर्षीय युवक से हमारा सामना हुआ जिसका नाम ‘हमारी' था। वह बहुत ही दुबला, पतला व कमजोर था। वह गुलामों की तरह लगता था... व्‍यवस्‍था का दास, सदियों से बेड़ियों में जकड़ा हुआ एक दीन-हीन और निरीह प्राणी, जिसको सरकारी कार्यक्रमों से न कोई मदद मिल पा रही थी और न उसे किसी तरह की जानकारी थी। हम लोगों की सहानुभूति भरी बातें सुनकर उसमें उत्‍साह जागा और वह अचानक ही आक्रोशित हो उठा। ऐसा लग रहा था मानो सदियों से दबाई गई उसकी खामोशी अचानक बाँध तोड़कर बाहर निकल आई हो। ‘‘हमने बहुत सहन कर लिया, अब हम अन्‍याय सहन नहीं करेंगे, हम अन्‍याय के खिलाफ संघर्ष करेंगे... जानवरों की तरह खामोश नहीं बैठेंगे हम... आखिर हम भी तो इंसान हैं।''

हमारे गु्रप के बाकी लोग उसमें एकाएक उपजे इस आक्रोश को देखकर पता नहीं क्‍या सोच रहे थे, परन्‍तु मेरे मन में उसके प्रति सहानुभूति पैदा हुई। उस वक्‍त मेरे पास उसे देने के लिए बौद्धिक करुणा के सिवा और कुछ भी नहीं था। मैं स्‍वयं को पूर्णतया असहाय अनुभव कर रहा था। लेकिन इस यात्राा से मेरे मन के इस संकल्‍प को बल मिला कि भविष्‍य में मुझे जो प्रशासनिक अधिकार प्राप्‍त होंगे, उनसे मैं किसी सीमा तक इन सामाजिक विसंगतियों को दूर कर सकूंगा। मुझे यह भी समझ में आने लगा था कि हमारे समाज में करने को बहुत कुछ है, बशर्ते कि हमारे अंदर कुछ कर सकने का जज्‍बा़ हो। इस यात्राा में मैंने यह भी महसूस किया कि लोगों की हमसे इतनी अपेक्षाएं पैदा हो गई थीं कि मैं उनके बोझ तले अपने को दबा महसूस करने लगा था। लेकिन मुझे इस बात का भरोसा था कि एक न एक दिन हम कुछ करने की स्‍थिति में होंगे और तब अवश्‍य ही इन लोगों की जिन्‍दगी में सकारात्‍मक परिवर्तन कर सकेंगे।

इस यात्रा में मैंने एक ओर ‘माई-बाप संस्‍कृति' को नज़दीक से देखा तो दूसरी ओर ब्‍यूरोक्रेसी की ‘जीप व डाकबंगला संस्‍कृति' को। कुछ दोस्‍तों के लिए यह ‘रेपिड रूरल' की बजाय ‘रेपिड रॉयल दौरा' बन कर रह गया था। वे लोग इस पूरे दौरे को सरकारी पिकनिक की तरह मनाते रहे और देश की गरीबी के मानचित्रा को अपने कैमरों में विभिन्‍न कोणों से कैद करते रहे।

रेपिड रूरल एप्रेजल के बाद जब हम लोग वापस अकादमी की ओर जा रहे थे, तो मेरे मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। देश के सामने ढेर सारी समस्‍याएं मुँह-बाये खड़ी थीं और मुझे इन समस्‍याओं में अपने लिए एक चुनौती नजर आ रही थी। जिस उद्देश्‍य से मैंने भारतीय पुलिस सेवा को चुना था, उन उद्देश्‍यों की पूर्ति करने के लिए मैं ट्रेनिंग खत्‍म कर जल्‍द से जल्‍द अपनी कर्म भूमि में उतरने को उतावला हो रहा था।

(अशोक कुमार)

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बुधवार, 27 जनवरी 2010

अब अंग्रेजी में Human in Khaki: किरण बेदी ने किया लोकार्पण

khaki4 बाएं से दाएं: लोकेश ओहरी (सह-लेखक), अशोक कुमार (लेखक), डॉ.किरण बेदी, आर.के.भाटिया(IPS), पी.एम.नायर(IPS)

चित्र में पीछे: लेखक की पत्नी डॉ. अलकनन्दा प्रसन्न मुद्रा में

Human in Khakhi-Dainik Hindustan-23-1-10

Human in Khakhi-Amar Ujala-23-1-10 

Human in Khakhi-Dainik Bhaskar-23-1-10

 

Human in Khakhi-Dainik Hindustan-24-1-10

 

Human in Khakhi-NBT-23-1-10

Human in Khakhi-The Statesman-24-1-10

 

Human in Khakhi-Vir Arjun-23-1-10

डॉ. किरण बेदी द्वारा इस प्रयास की मुक्त कंठ की सराहना की गयी। उन्होंने कहा कि इस किताब में संस्मरण के रूप में जिन सच्चे मुद्दों को उठाया गया है उसे टेलीविजन पर धारावाहिक रूप में दिखाया जाना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग इसका सन्देश ग्रहण कर सकें। प्रशंसकों, मीडिया और मेरे सहकर्मियों द्वारा जो समर्थन और सहयोग दिया गया है उससे मैं अभिभूत हूँ। हार्दिक धन्यवाद।

(अशोक कुमार)

रविवार, 10 जनवरी 2010

वोट न देने की सजा बलात्कार…???

लीक से हटकर इंसाफ की एक डगर

उत्तर प्रदेश का शाहजहाँपुर जिला कई विशेषताओं के लिए जाना जाता है। एक ओर उत्तर में घने जंगलों से घिरा हुआ, अतीत में दलदल के रूप में प्रसिद्ध, तराई का क्षेत्र है, जिसे मेहनतकश सिख किसानों ने अपने खून-पसीने से सींच कर स्‍वर्ग बना डाला है। दूसरी ओर दक्षिण में रामगंगा की कटरी है, जो कलुआ जैसे कुख्‍यात डकैतों के गिरोहों एवं खूंखार अपराधियों की शरण-स्‍थली रही है। यदि इस बात की गहराई में जाया जाए कि इस क्षेत्र में इतने अपराधी क्‍यों पैदा होते हैं तो इसके पीछे कहीं न कहीं गाँव के लोगों द्वारा छोटी-छोटी बातों को लेकर की जाने वाली लड़ाइयाँ, जाति और वर्णगत संघर्ष तथा गाँव में फैली सामन्‍तशाही जिम्‍मेदार है। इन्‍हीं बातों ने गाँव की नौजवान पीढ़ी के बीच एक घुटन भरा माहौल पैदा कर दिया है जो उन्‍हें गाँव छोड़कर भागने के लिए मजबूर करता रहा है। जो नौजवान गाँव या आसपास के इलाकों में ठहरे रह जाते हैं, उनमें से कुछ डकैत और कुख्‍यात अपराधियों के जाल में फँसकर खुद भी उनके पदचिद्दों पर चलने लगते हैं।

एक और बात जो शाहजहाँपुर के बारे में सबसे अधिक ध्‍यान आकृष्‍ट करती है, वह है यहाँ के लोगों का शस्‍त्र-प्रेम। जब भी आप सड़कों से गुजरते हैं, दर्जनों लोग बन्‍दूकें लिए, कई तरह के वाहनों पर सवार आते-जाते दिखाई देते हैं। इस सबके बावजूद उल्‍लेखनीय बात यह है कि यहाँ के निवासी संभ्रान्‍त, मृदुभाषी एवं सुसंस्‍कृत हैं।

एक और बात जो शाहजहाँपुर के बारे में सबसे अधिक ध्‍यान आकृष्‍ट करती है, वह है यहाँ के लोगों का शस्‍त्र-प्रेम।

देश की आजादी की लड़ाई में भी शाहजहाँपुर का अपना विशिष्‍ट स्‍थान रहा है। यहाँ का हर नागरिक अपनी मिट्‌टी में पले-बढ़े दो महान शहीदों, अशफ़ाक़ उल्‍ला और रामप्रसाद बिस्‍मिल द्वारा आजादी की लड़ाई में निभाई गई क्रांतिकारी भूमिका को याद कर खुद को गौरवान्‍वित महसूस करता है।

वर्ष 1997 में, जब मैं शाहजहाँपुर में पुलिस अधीक्षक के रूप में तैनात था, हर रोज कार्यालय में मुझसे मिलने सैकड़ों शिकायतकर्ता आते थे। अलग-अलग तरह के मामलों को लेकर की गई ये शिकायतें रोचक और चौंकाने वाली तो होती ही थीं, कभी-कभी दिल दहला देने वाली भी होती थीं। इन शिकायतों को सुनना और फिर उनका कानूनी एवं मानवीय धरातल पर विवेचन कर समाधान निकालना अपने-आप में एक नए अनुभव से गुजरना होता था।

इसी क्रम में एक दिन साधारण-सी दिखने वाली लगभग 25 वर्षीय एक महिला मेरे कार्यालय में आयी। वह एक साधारण पीले रंग की सूती साड़ी पहने हुई थी और किसी गरीब कारीगर परिवार से संबंधित लगती थी। मैंने अनुभव किया कि उसका पहनावा, उसकी चाल-ढाल और उसका चेहरा ऐसा गरिमामय था कि ऐसा संभव ही नहीं था कि सामने वाले को अपनी उपस्‍थिति का अहसास न कराए। उसकी पीड़ा उसके चेहरे से साफ झलक रही थी। वह अत्‍यधिक थकी हुई लग रही थी और ऐसा लगता था कि मुझसे मिलने के लिए बहुत दूर से आयी है तथा मिलने के लिए उसे काफी देर तक इन्‍तज़ार करना पड़ा है।

‘‘साहब, मैं बहुत विपदा की मारी हूँ । क्‍या आप मुझे सिर्फ पाँच मिनट देकर मेरी पूरी बात सुन सकते हैं ?'' कमरे में घुसते ही उस महिला ने सीध्‍ो मुझे संबोधित करते हुए विनती की। सीधी-सपाट भाषा और उन शब्‍दों के पीछे झलकते उसके दृढ़ निश्‍चय को देखकर एकाएक मैं चौंका। जहाँ एक ओर मुझे आश्‍चर्य हुआ वहीं दूसरी ओर मेरे अन्‍दर कौतूहल के साथ उस महिला के प्रति एक अमूर्त-से सम्‍मान का भाव भी उत्‍पन्‍न हुआ। मन में जिज्ञासा उठी कि गाँव की एक सीधी-सादी महिला अकेले अपने आत्‍मबल, आत्‍मविश्‍वास एवं दृढ़ निश्‍चय के सहारे अपनी समस्‍या को लेकर इतनी दूर चलकर न जाने कितनी कठिनाईयों से जूझती हुई मेरे कार्यालय तक आयी होगी । सामान्‍यतः देखा गया है कि ग्रामीण अंचल में रहने वाला एक आम आदमी बिना किसी प्रभावशाली व्‍यक्‍ति को साथ लिए, पुलिस के अदने से कर्मचारी के सामने आने में भी डरता है, जबकि यहाँ तो एक ग्रामीण महिला अपने जिले के पुलिस कप्‍तान के सामने निर्भीकता के साथ खड़ी अपनी समस्‍या का सहज ढंग से बखान कर रही थी।

‘‘साहब, मैं बहुत विपदा की मारी हूँ । क्‍या आप मुझे सिर्फ पाँच मिनट देकर मेरी पूरी बात सुन सकते हैं ?''

अनुभव ने मुझे सिखाया है कि समस्‍या की तह तक जाने के लिए हर आदमी की बात ध्‍यान से मानवीय संवेदनाओं के साथ सुनना और सारी बात सुनने के बाद शिकायतकर्ता के दृष्‍टिकोण से उस पर मनन करना बहुत जरूरी है। तभी हम उसकी समस्‍या की गहराई और उसके उन अपेक्षित आयामों तक पहुँच सकते हैं जिनकी ओर शिकायतकर्ता ध्‍यान आकर्षित करना चाहता है। शायद तभी हम ऐसी कारगर पुलिस व्‍यवस्‍था बना सकते हैं, जो गरीबों, उपेक्षितों और पीड़ितों की मदद करने के साथ ही उनकी पहुँच के दायरे में हो। सामान्‍यतः देखा गया है कि वर्तमान व्‍यवस्‍था में जिनके पास पैसा है, ताकत है उनको तो न्‍याय मिल जाता है और बाकी लोग या तो परिस्‍थितिवश उससे वंचित रह जाते हैं या न्‍याय के नजदीक पहुँच कर भी उसे हासिल कर पाने में समर्थ नहीं हो पाते। जब तक वे न्‍याय के निकट पहुँचते हैं, उनका समर्थ प्रतिद्वंद्वी अपने साधनों और पहुँच की बदौलत, उनसे पहले न्‍याय को लपक लेता है। अपने अनुभवों से मैंने जाना है कि अच्‍छी पुलिस व्‍यवस्‍था की अगर किसी को जरूरत है तो ऐसे लोगों को, जो न तो किसी प्रभावशाली व्‍यक्‍ति की कृपा के पात्रा हैं और न ही जिनके पास खर्च कर सकने के लिए पैसा है।

मैंने उस महिला को बैठाया और आराम से पूरा समय लेकर अपनी परेशानी बताने को कहा। ज्‍यों-ज्‍यों वह महिला अपने संयत, मगर विश्‍वास भरे स्‍वर में दिल दहला देने वाली अपनी आपबीती घटना मेरे सामने बयान कर रही थी, उस महिला के प्रति मेरा सम्‍मान और अधिक बढ़ता चला जा रहा था। उसकी अभिव्‍यक्‍ति में एक ओर बला की ताकत थी तो दूसरी ओर व्‍यवस्‍था के प्रति उसका अटूट विश्‍वास भी झलक रहा था। वह न्‍याय पाने की आशा में कई अड़चनों का मजबूती से सामना करती हुई मेरे पास आई थी, शायद इसीलिए उसकी अभिव्‍यक्‍ति में इस तरह की स्‍पष्‍टता थी। अबला समझी जाने वाली एक सामान्‍य घरेलू औरत के साथ घटित इस घटनाक्रम को सुनकर मैं मंत्रमुग्‍ध-सा उसकी बातों में डूबता चला गया। इस बीच कितना समय बीत गया, मुझे इसका आभास तक नहीं रहा।

उसने जो आपबीती सुनाई, उसके अनुसार इस महिला के गाँव में पंचायत के चुनाव होने वाले थे। चुनाव प्रचार के दौरान सभी उम्‍मीदवार धनबल एवं बाहुबल का खुलकर इस्‍तेमाल कर रहे थे। कहीं पैसा काम आ रहा था तो कहीं शराब और कहीं पर दबंगों की टोली... ये सारे हथकण्‍डे चुनाव के लिए अपनाये जा रहे थे। इसी दौरान कुछ दबंग लोग महिला के घर पर आए और उन्‍होंने उस महिला से अपने परिवार के सारे सदस्‍यों के साथ उन्‍हें ही वोट डालने को कहा। जाते-जाते वे यह चेतावनी देना भी नहीं भूले कि उन्‍हें वोट न देने की स्‍थिति में उसके परिवार को गम्‍भीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए।

पंचायत के चुनाव समाप्‍त हो गए और जब चुनाव के नतीजे सामने आए तो वही दबंग महाशय अपनी दबंगई और पैसे के बल पर ग्राम प्रधान के रूप में चुन लिए गए। परन्‍तु उनकी जीत बहुत ही कम वोटों से हुई थी, इसलिए उन लोगों ने यह पता लगाना शुरू किया कि किन-किन लोगों ने उनको वोट नहीं डाले। हमारे प्रजातंत्र में वोट की गोपनीयता होते हुए भी यह पता लगाना बहुत आसान है कि किस क्षेत्र से किन लोगों ने किसे वोट दिया है। उस महिला के मामले में भी यही हुआ और दबंगों को यह शक हो गया कि महिला और उसका परिवार दबंगों को वोट न देने वालों में शामिल था।

हमारे प्रजातंत्र में वोट की गोपनीयता होते हुए भी यह पता लगाना बहुत आसान है कि किस क्षेत्र से किन लोगों ने किसे वोट दिया है।

चुनाव सम्‍पन्‍न हुए बहुत दिन नहीं बीते थे कि एक दिन दबंगों के परिवार के चार लोग हाथ में लाठी-डंडे लिए महिला के घर आए और बिना किसी से पूछे या वाद-विवाद के महिला के घर में घुसते चले गए। दबंगों ने झटके से दरवाजा अन्‍दर से बन्‍द कर दिया। महिला के पति और ससुर को उन्‍होंने बुरी तरह पीटा और फिर उन्‍हें रस्‍सी से बाँधकर उनके सामने ही एक-एक करके चारों दबंगों ने बलपूर्वक उसकी इज्‍जत लूटी। महिला चीखती- चिल्‍लाती रह गई, उसका पति और ससुर इस घिनौने कृत्‍य तथा अमानवीय अत्‍याचार को बेबस व असहाय मूकदर्शक की तरह देखते रहे। महिला की चीख-पुकार बंद दीवारों के बाहर भी गई लेकिन किसी भी व्‍यक्‍ति ने अंदर आकर विरोध करने का साहस नहीं दिखाया। पूरे समय दबंग अपनी मनमानी करते रहे। चीखती-चिल्‍लाती महिला और उसके परिजनों को उसी प्रकार अस्‍त-व्‍यस्‍त हालत में छोड़कर जाते-जाते चारों लोग महिला के परिवार को धमकी भी दे गए कि उनकी खिलाफत करने का अंजाम उन्‍होंने देख ही लिया है, अब अगर पुलिस में रिपोर्ट करने की हिम्‍मत दिखाई तो उसके परिणाम इससे भी अधिक भयावह होंगे।

गाँव भर में दंबगों ने सरेआम ढिंढोरा पीटा कि उनके साथ बगावत करने का क्‍या हश्र होता है। उन्‍होंने घूम-घूमकर महिला के साथ किए गए व्‍यभिचार का नमक-मिर्च लगाकर वर्णन किया और बार-बार इस बात का बखान किया कि उन्‍होंने किस तरह उनके गाँव की बहू की इज्‍जत लूटकर अपना बदला लिया। जाहिर है कि दबंगों के द्वारा गाँव वालों को अप्रत्‍यक्ष रूप में यह संदेश दिया गया कि अगर कोई भी उनकी तरफ आँख उठाने या बोलने की हिम्‍मत करेगा तो उसका भी यही परिणाम होगा।

दबंगों के जाने के बाद शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह लुट और टूट चुकी महिला इंसाफ पाने की उम्‍मीद में पुलिस में रिपोर्ट लिखाना चाहती थी लेकिन उसके पति और ससुर दबंगों के डर से इतने भयाक्रान्‍त थे कि वे रिपोर्ट लिखवाने के लिए राजी नहीं हुए। महिला के परिजनों को प्रशासन पर विश्‍वास नहीं था। वे बार-बार यही दोहरा रहे थे कि उनकी किस्‍मत में ऐसा ही लिखा था। ऐसे दबंगों के खिलाफ किसी प्रकार की रिपोर्ट लिखवाने से भी प्रशासन उनके खिलाफ़ कुछ करेगा तो नहीं बल्‍कि उनके परिवार के लिए और बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। महिला काफी दिनों तक मानसिक तनाव और पशोपेश में रही किन्‍तु अंततः अपने परिजनों की बात न मानकर उसने अपना रास्‍ता खुद चुनने का निर्णय लिया। अपने पति की बेबसी व लाचारी को देखते हुए उसने मन ही मन यह ठाना कि वह स्‍वयं न्‍याय के लिये लड़ेगी और दंबगों को सबक सिखा कर रहेगी, जिससे वे किसी और असहाय महिला के साथ ऐसा करने की हिम्‍मत न कर सकें। अपने साथ हुए अन्‍याय व अपमान के विरु़द्ध न्‍याय पाने की दृढ़ इच्‍छाशक्‍ति ने ही उसे थाने जाकर स्‍वयं रिपोर्ट लिखवाने के लिए प्रेरित किया। वह अकेले ही थाने में रिपोर्ट लिखवाने के लिए पहुँची।

गाँव में पुलिस आयी और उसने अपनी तहकीकात प्रारम्‍भ की। मामला एकदम खुला था। महिला, उसके परिजन एवं गाँव वालों के सामने घटना के तत्‍काल बाद स्‍वयं ही दबंगों ने घटना को उजागर किया था। बलात्‍कार जैसे इस जघन्‍य अपराध के आरोपियों को अन्‍ततः पुलिस के द्वारा गिरफ्‍तार कर लिया गया। परन्‍तु हमारी व्‍यवस्‍था की त्रासदी ये है कि प्रभावशाली एवं पैसे वाले लोग आपराधिक न्‍याय व्‍यवस्‍था में खामियाँ ढूँढकर जघन्‍यतम अपराध करके भी कानूनी दाँव-पेंच में माहिर वकीलों से पैरवी करवा कर जमानत पर छूटने में सफल हो जाते हैं। इस मामले में भी यही हुआ और पूरे साक्ष्‍यों के बावजूद अपराधी जमानत पर छूटने में सफल हो गए।

जेल से बाहर आकर ये अपराधी और अधिक मुक्‍त ढंग से घूमने लगे और उनके द्वारा फिर से पीड़ित परिवार से बदला लेने की घोषणा पूरे गाँव में की जाने लगी। जिस औरत ने उन्‍हें जेल भिजवाया था, उसे तो अब किसी हाल में नहीं छोड़ा जाएगा, उसके परिवार के एक-एक सदस्‍य को वे जेल भिजवा कर रहेंगे।... उन्‍होंने थाने के अपनी जाति के ही एक दरोगा से सम्‍पर्क कर महिला के पति को नशीली दवाओं का धंधा करने के आरोप में गिरफ्‍तार करवा दिया। एक दिन महिला का पति जब अपने किसी काम से साइकिल पर शहर तक गया था तो उसकी साइकिल की सीट के नीचे एक चरस का पैकेट रखवा दिया गया और फिर उसकी सूचना पुलिस को देकर साइकिल की तलाशी करवाई गई। चरस रखने के आरोप में उसके पति को जेल भेज दिया गया। दबंगों द्वारा पूरे गाँव में फिर से ढिंढोरा पीट-पीट कर बताया गया कि उनके द्वारा अपना बदला किस प्रकार पूरा किया गया।

महिला और उसके बूढे़ ससुर का गाँव में जीना मुश्‍किल हो गया था क्‍योंकि मजदूरी करके परिवार का भरण-पोषण करने वाला उनका एकमात्र सहारा जेल भेज दिया गया था। जमानत कराने के लिए परिवार के पास वकील की फीस देने तक को पैसे नहीं थे, बचाव का कोई रास्‍ता बचा नहीं था। उस पर महिला को हमेशा यह डर सताता रहता था कि न जाने कब दबंग उनके घर पर आ धमकें और उसके साथ फिर जाने कैसी ज्‍यादती करें। इस बीच उसके पति को जेल में 45 दिन बीत चुके थे। वह और उसका बूढ़ा ससुर भुखमरी के कगार पर पहुँच चुके थे और उन्‍हें अन्‍धकार के सिवाय कोई रास्‍ता नहीं दिखाई दे रहा था। ऐसे में जब उसने सुना कि जिले के नए कप्‍तान साहब आम लोगों की बातें, बिना किसी सिफारिश के, सीध्‍ो सुन लेते हैं, तो उसने न्‍याय की आशा में मेरे पास सीध्‍ो आने का निर्णय लिया। शायद यही उसकी आखिरी उम्‍मीद भी थी। उसने बताया कि यद्यपि उसे शुरू में घबराहट हुई लेकिन इसके बावजूद अपने सम्‍मान व जीवन की रक्षा के लिए उसके पास इसके अलावा कोई विकल्‍प नहीं था। अंततः यहाँ तक आने का साहस उसने जुटा ही लिया।

महिला की दुःखभरी कहानी सुनकर मैं सन्‍न रह गया। जिस पुलिस व्‍यवस्‍था को गरीबों और असहायों का सहारा बनना चाहिए, वही इस परिवार के लिए अभिशाप बनकर आयी थी। जिस पुलिस व्‍यवस्‍था को प्रभावशाली व्‍यक्‍तियों, दबंगों और बदमाशों को गरीबों पर ज्‍यादतियों के लिए सजा दिलानी चाहिए थी, उसी व्‍यवस्‍था का इस्‍तेमाल कर ऐसे शरारती तत्‍वों ने एक गरीब, निर्दोष व असहाय व्‍यक्‍ति को नारकोटिक्‍स जैसे कठोर एक्‍ट के झूठे इल्‍जाम में जेल भिजवा दिया था।

इतना कुछ बीत जाने के बाद ज्‍यादातर लोग थक-हार कर जिन्‍दगी से लड़ना छोड़ देते हैं, आत्‍महत्‍या कर बैठते हैं या फिर कुछ लोग फूलन देवी जैसा असामाजिक रास्‍ता अपनाने को मजबूर हो जाते हैं। किन्‍तु इस महिला की न्‍याय पाने की ललक और व्‍यवस्‍था में उसकी आस्‍था अतुलनीय थी, जिसकी वजह से उसने दबंगों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखने का निर्णय लिया। अन्‍याय के विरुद्ध उसने अपनी लड़ाई जारी रखी। मुझे महिला के इसी साहस ने प्रभावित किया। वह मेरे सामने अपनी आपबीती सुनाकर शान्‍त बैठी थी और मेरी प्रतिक्रिया का इन्‍तजा़र कर रही थी। मुझे उसके प्रति पूरी सहानुभूति थी... मैं उसकी पीड़ा और व्‍यथा को पूरी तरह समझ सकता था। मैंने उसे आश्‍वस्‍त किया कि इस मामले की निष्‍पक्ष जाँच कराई जाएगी और यदि उसका पति झूठे मुकदमे में जेल भेजा गया है तो उसे जल्‍द ही जेल से छुड़वा दिया जाएगा।

मेरे द्वारा समझाए जाने पर क्षेत्राधिकारी ने अपनी जाँच आख्‍या दुबारा भेजी। इस बार जाँच आख्‍या पूर्णतः सही थी।

उस औरत ने जिस आत्‍मविश्‍वास के साथ अपनी आपबीती सुनाई थी, उसका एक-एक शब्‍द सच प्रतीत हो रहा था। मैंने अपने स्‍टाफ़ को बुलाकर महिला का प्रार्थनापत्र लिखवाया। हालांकि प्रार्थनापत्र लिखते हुए महिला को एक बार फिर अपनी दुखद त्रासदी से गुजरना पड़ा, फिर भी जिस उत्‍साह से उसने अपनी शिकायत दर्ज करवायी उससे साफ झलक रहा था कि मुझसे मिलकर उसके मन में न्‍याय पाने की आशा जगी थी। मैंने उसकी शिकायत की एक प्रति उस क्षेत्र के सर्किल ऑफिसर को जाँच हेतु भेज दी और साथ ही एक कॉपी गोपनीय जाँच हेतु स्‍थानीय अभिसूचना इकाई को भी प्रेषित कर दी।

अन्‍य राजकीय विभागों की तरह ही पुलिस विभाग में शिकायतों के निस्‍तारण की जो व्‍यवस्‍था है, उसका सबसे दुखद और आश्‍चर्यजनक पहलू यह है कि सामान्‍यतः जिस आदमी के विरुद्ध शिकायत होती है, अन्‍ततः उसी व्‍यक्‍ति को जाँच अधिकारी बना दिया जाता है। इस केस में भी क्षेत्राधिकारी ने इस शिकायत को जाँच हेतु थानाध्‍यक्ष के सुपुर्द कर दिया और थानाध्‍यक्ष ने उसी उपनिरीक्षक को जाँच सौंप दी जिसके विरुद्ध वह शिकायत की गई थी। स्‍वाभाविक था कि दरोगा ने अपनी कार्यवाही को सही ठहराते हुए फाइल में रिपोर्ट लगा दी, जो थानाध्‍यक्ष और क्षेत्राधिकारी के माध्‍यम से मेरे कार्यालय में पहुँच गई।

प्रायः यह देखने में आया है कि कुछ अधिकारी जन-समस्‍याओं के प्रति संवेदनशील नहीं होते, उनकी पकड़ में इस तरह की बातें नहीं आ पाती हैं। इस तरह की जाँच-आख्‍याओं को ‘सीन, फाइल' नोट लगाकर हमेशा के लिए बंद समझ लिया जाता है और पूरी त्रासदी फाइलों के ढेर में दब कर रह जाती है। मुझे लगा कि ऐसी स्‍थिति में मेरे पुलिस में बने रहने का कोई औचित्‍य नहीं रह जाता। यदि मैंने भी इस केस पर विशेष ध्‍यान नहीं दिया होता तो यह शिकायत भी ऐसे ही फाइलों के ढेर में दब कर दम तोड़ जाती। इससे भी बड़ी विडंबना यह होती कि फाइलों के साथ ही साथ महिला और उसके परिवार की तीन जिन्‍दगियॉँ भी दफन हो चुकी होतीं।

तत्‍काल कुछ भी निर्णय न ले सकने की स्‍थिति में मैंने वह फाइल अपनी मेज पर ही रख छोड़ी। गोपनीय शाखा को जाँच के लिए मैंने जो टिप्‍पणी प्रेषित की थी, उसकी रिपोर्ट भी तीन दिन के अन्‍दर मेरे कार्यालय पहुँच गई। रिपोर्ट में महिला की आपबीती को सभी अत्‍याचारों सहित अक्षरशः सच पाया गया था। आश्‍चर्यजनक बात यह थी कि यह घटना किसी से भी छिपी हुई नहीं थी। गाँव का बच्‍चा-बच्‍चा शुरू से लेकर अन्‍त तक पूरी कहानी को जानता था। जैसे कि पहले भी बताया जा चुका है, दबंगों ने खुद ही महिला के पति को झूठे मुकदमें में फँसाने का ढिंढोरा जमकर पीटा था।

गोपनीय शाखा की जाँच प्राप्‍त होने पर मैंने सम्‍बन्‍धित क्षेत्राधिकारी को अपने कार्यालय में बुलाया और उसको गोपनीय शाखा की जाँच-आख्‍या दिखायी। वह एक अनुभवी क्षेत्राधिकारी था, जो दरोगा से प्रोन्‍नत होकर पुलिस उपाधीक्षक बना था तथा काफी उम्रदराज़ भी था। उसने तत्‍काल इस बात को मान लिया कि महिला की शिकायत सही थी। किन्‍तु उसकी हिचक थी कि हम लोग कैसे अपने ही स्‍टाफ़ के लोगों को गलत ठहरा सकते हैं। उसका यह भी कहना था कि अब तो केस न्‍यायालय में जा चुका है। ऐसे में अपने स्‍टाफ की गलती को स्‍वीकार कर लेने से स्‍टाफ़ को दण्‍डित तो करना ही पड़ेगा, साथ ही ऐसा करने से पुलिस की छवि भी धूमिल होगी। क्षेत्राधिकारी ने अपनी पूरी ज़िन्‍दगी इसी तरह बिताई थी, इसीलिए उसके अनुसार इस केस को रफा-दफा करने में ही बुद्धिमानी थी।

लेकिन मैंने मन बना लिया था कि मैं हर हालत में सत्‍य और न्‍याय का साथ दूंगा और पुलिस की एक गलती को छिपाने के लिए उससे भी बड़ी दूसरी गलती नहीं करूंगा। यहाँ तीन-तीन लोगों की ज़िन्‍दगी का ही नहीं, लोगों के पुलिस-तंत्र में विश्‍वास का सवाल था। मेरा मानना था कि पीड़ित महिला और उसके परिवार को बचाने में यदि पुलिस की गलती उजागर होती भी है तब भी हम न्‍याय के ज्‍यादा निकट होंगे। ऐसा करने से पुलिस की छवि खराब होने के बजाय और बेहतर होगी क्‍योंकि गलती को स्‍वीकार करने के लिए और अधिक ताकतवर होने की आवश्‍यकता होती है। मीडिया और समाज भी इस बात को समझेगा कि कम से कम किसी स्‍तर पर तो पुलिस से न्‍याय की उम्‍मीद की जा सकती है।

मेरे द्वारा समझाए जाने पर क्षेत्राधिकारी ने अपनी जाँच आख्‍या दुबारा भेजी। इस बार जाँच आख्‍या पूर्णतः सही थी। उसके आधार पर मैंने सम्‍बन्‍धित उप-निरीक्षक को निलम्‍बित कर दिया, जिसकी वजह से एक अबला का परिवार नष्‍ट होने के कगार पर पहुँच गया था । मैंने क्षेत्राधिकारी को आदेश दिया कि वह न्‍यायालय में सच्‍चाई को स्‍वीकारते हुए महिला के पति के खिलाफ़ दर्ज केस को वापस लेने हेतु आख्‍या भेजे। यह भी निर्देश दिये कि यह स्‍वीकार किया जाय कि प्रकरण में पुलिस से गलती हुई है। माननीय न्‍यायालय द्वारा इस रिपोर्ट के आधार पर महिला के पति को बाइज्‍जत छोड़ दिया गया। हमने दबंगों के ऊपर कड़ी कार्यवाही सुनिश्‍चित की ताकि भविष्‍य में वे किसी निर्दोष को फिर से अपने जुल्‍मों का शिकार न बना सकें।

अपने पति के जेल से छूटने के बाद महिला अपने पति के साथ मेरे कार्यालय में मुझे धन्‍यवाद देने आई तो उसके चेहरे पर आभार एवं खुशी के मिश्रित भाव साफ देखे जा सकते थे। उसको मिले न्‍याय से उसे अब जीने का मजबूत सहारा मिल गया था। मैं जानता था कि हमारी कार्यवाही से उस महिला के दुख को कम तो नहीं किया जा सकता था किन्‍तु उसके घावों पर मरहम लगाने का काम तो हमारे निर्णय ने किया ही। इसके अलावा महिला और उसके परिवार को सम्‍मानपूर्वक एवं भयमुक्‍त जीवन जीने का अवसर भी मिला।

अगले दिन क्षेत्राधिकारी भी मेरे कार्यालय में आए और उन्‍होंने स्‍वीकार किया कि पुलिस की कहानी पलटने से, पुलिस द्वारा अपनी गलती स्‍वीकार करने से, निर्दोष आदमी के जेल से छूटने से और दोषी पुलिसकर्मियों के सजा पाने से समाज और मीडिया में पुलिस की छवि बेहतर हुई। न्‍याय के प्रति लोगों का विश्‍वास बढ़ा और लोगों को खाकी वर्दी में छिपी हुई इंसानियत के दर्शन हुए।

(अशोक कुमार)

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शनिवार, 2 जनवरी 2010

पंचों ने सुनाया राक्षसी फरमान…

 

‘‘जुम्‍मन शेख के मन में सरपंच का उच्‍च स्‍थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्‍मेदारी का भाव पैदा हुआ । सोचा-मैं इस वक्‍त न्‍याय और धर्म के सर्वोच्‍च आसन पर बैठा हूँ । पंचों की जुबान से जो बात निकलती है-वह खुदा की तरफ से निकलती है । देवों की वाणी में मेरे अपने मनोविकारों का कदापि समावेश नहीं होना चाहिए । मेरा सच से जौ भर भी टलना उचित नहीं ।''

(प्रेमचन्‍द की कहानी ‘पंच परमेश्‍वर' से)

पंच परमेश्‍वर या ...

रुड़की हरिद्वार जनपद में स्‍थित एक महत्‍वपूर्ण शहर है। यहाँ करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज ‘थॉमसन कालेज आफ इंजीनियरिंग' के रूप में स्‍थापित किया गया था जो बाद में रुड़की इंजीनियरिंग विश्‍वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध हुआ एवं वर्तमान में आई.आई.टी. में परिवर्तित हो चुका है। यह शहर गंगनहर के किनारे बसा हुआ है। यहॉँ नहरों के निर्माण में कर्नल कोटले की इंजीनियरिंग का उत्‍कृष्‍ट नमूना देखने को मिलता है। रुड़की के चारों तरफ देहात का क्षेत्र है। इस क्षेत्र की संस्कृति और लोक परम्पराएँ हरिद्वार की अपेक्षा सीमावर्ती जनपदों मुजफ्‍फरनगर और सहारनपुर से ज्‍यादा मिलती हैं।

वर्ष 1996 में रुड़की के इसी देहात क्षेत्र में एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने पूरी मानव जाति का और हमारी सदियों पुरानी न्‍याय-परम्‍परा का सिर शर्म से झुका दिया। यह एक बीस साल के मजदूर और उसकी पत्‍नी के साथ घटित लोमहर्षक, शर्मनाक और क्रूर घटना की कहानी है, जिसमें पंचायत ने न्‍याय के नाम पर एक गरीब महिला के साथ घोर अन्‍याय कर डाला था और उसकी मदद को गाँव का कोई भी व्‍यक्‍ति सामने नहीं आया था।

एक दिन जब मैं हरिद्वार स्‍थित एस.एस.पी. ऑफिस में बैठा काम कर रहा था तो एक थानाध्‍यक्ष का फोन आया। वह बहुत ही डरी हुई आवाज़ में बोल रहा था। उसने बताया कि मजदूर किस्‍म का एक आदमी पास के गाँव से एक बैलगाड़ी से चलकर आया है। बैलगाड़ी में एक टूटी-सी चारपाई पर उसकी पत्‍नी लगभग अचेतावस्‍था में पड़ी है और बिल्‍कुल भी हिलने-डुलने व बोलने की स्‍थिति में नहीं है। थानाध्‍यक्ष ने बताया कि शिकायतकर्ता बता रहा है कि गाँव के ही 15-16 लोगों ने उसकी पत्‍नी के साथ सामूहिक बलात्‍कार किया है।

घटना सचमुच ही अत्‍यन्‍त अमानवीय व रोंगटे खड़े कर देने वाली थी, परन्‍तु थानाध्‍यक्ष को डरने के बजाय तत्‍काल कार्यवाही करने की जरूरत थी। मैंने फोन पर ही महिला को तत्‍काल अस्‍पताल पहुँचाने के निर्देश दिए और स्‍वयं भी अस्‍पताल होते हुए घटनास्‍थल के लिए चल पड़ा। रुड़की हरिद्वार से लगभग 30 कि.मी. दूर है। जब तक मैं रुड़की पहुँचा तब तक महिला को चिकित्‍सकीय सहायता दी जाने लगी थी। मैने गौर से उस महिला को देखा, वह टक-टकी बाँधे भाव शून्‍य होकर अपने बिस्‍तर पर पड़ी हुई थी व किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं कर रही थी। डॉक्‍टर ने मुझे बताया कि महिला गम्‍भीर मानसिक आघात की स्‍थिति में है, इसीलिए वह बोल नहीं पा रही है। शारीरिक रूप से भी उसमें बैठने, उठने या चलने की क्षमता नहीं बची है। परन्‍तु उसकी जान को खतरा नहीं था।

मेरे अस्‍पताल पहुँच जाने के बाद चिकित्‍सकीय सहायता में तेजी आई और पीड़ित महिला को अच्‍छे स्‍तर की दवाइयाँ और इंजेक्‍शन उपलब्‍ध कराये जाने लगे। डॉक्‍टर से मैंने इस महिला को एक प्राइवेट वार्ड तत्‍काल उपलब्‍ध कराने को कहा क्‍योंकि मुझे लगा कि जनरल वार्ड में इतनी शर्मनाक घटना की बार-बार चर्चा होने से उसे व उसके पति को और अधिक दुःख और मानसिक आघात पहुँचेगा।

उसका पति बीस-बाइस साल का एक दुबला-पतला मजदूर लगता था, जो फटे-पुराने एवं मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए था। उससे पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि वह और उसकी पत्‍नी गाँव के पास के एक ईंट के भट्‌ठे में मजदूरी का काम करते थे। ठेकेदार के मुंशी की उसकी पत्‍नी पर बुरी नजर थी और धीरे-धीरे उसने उसको पैसे और ऐशोआराम के लालच में अपने जाल में फँसा लिया था। जब से उसकी शादी हुई थी, यह महिला दिन भर ईंट-पत्‍थर ढोने का काम करती थी। शादी के रंगीन सपने उसके लिए मात्रा सपने बन कर रह गए थे क्‍योंकि दस-बारह घण्‍टे की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद पति-पत्‍नी दोनों घर में आकर निढाल होकर पड़ जाते थे और उनमें वैवाहिक जीवन का सुख भोगने की शक्‍ति या इच्‍छा ही नहीं बची रहती थी। महिला को तो परिवार का खाना आदि भी बनाना पड़ता था। मुंशी द्वारा दिखाये जा रहे ऐशो-आराम के सपनों में इस महिला को अपने इन सब दुखों का छुटकारा नजर आता था। अन्‍ततः एक दिन यह महिला अपने पति-धर्म को ठोकर मारकर ठेकेदार के मुंशी के साथ उसकी मोटर साइकिल पर भाग गई।

इस मजदूर ने ठेकेदार से बात कर अपनी पत्‍नी को ढुँढवाने में मदद की गुजारिश की तो ठेकेदार ने उसे मदद का आश्‍वासन दिया। ठेकेदार के आश्‍वासन के बावजूद मजदूर स्‍वयं साइकिल ले कर अपनी पत्‍नी को ढूँढने के लिए इधर से उधर दौड़ता रहा। अन्‍ततः एक महीने बाद उसने अपनी पत्‍नी को खोज ही निकाला। इस एक महीने में उसकी पत्‍नी के मुंशी के साथ ऐशो-आराम के सपने चकनाचूर हो चुके थे। मुंशी का अपना परिवार था, जिस पर भी उसे खर्च करना पड़ता था। इस नवयुवती महिला को मुंशी ने अपनी रखैल बना छोड़ा था। जब उसका मन होता तो उसके पास आ जाता बाकी समय अपने परिवार में ही बिताता था । धीरे-धीरे मुन्‍शी ने उसे पैसा व जरूरत की चीजें देना भी बन्‍द कर दिया था । महिला को हमेशा समाज से छुप कर रहना पड़ता था । ऐसे बन्‍दी जीवन से तो उसे अपनी ईंट-पत्‍थर की मजदूरी की जिन्‍दगी ज्‍यादा अच्‍छी लगने लगी थी और उसे रह-रह कर अपने पति की याद सताने लगी थी।

आखिरकार एक महीने बाद ठेकेदार के दबाव से मुंशी ने उसकी पत्‍नी उसे वापस कर दी। गरीबी के मारे मजदूर ने इस घटना को अपने दुर्भाग्‍य के रूप में स्‍वीकार कर लिया। पैसे वाले और प्रभावशाली लोगों से मजदूर को उसकी पत्‍नी वापस मिल गई थी, यही उसके लिए बहुत था। वह अपनी पत्‍नी को पाकर खुश था और उसके साथ खुशी-खुशी अपना जीवन बिताना चाहता था। उसमें न तो कोई बदला लेने की क्षमता थी और न ही उसकी ऐसी भावना थी।

वह अपनी पत्‍नी को लेकर लगभग शाम के वक्‍त अपने गाँव पहुँचा तो खबर पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई। ग्रामीण जीवन की एक खास बात यह है कि व्‍यक्‍ति का अपना निजी कुछ भी नहीं होता। व्‍यक्‍ति के साथ घटित हर घटना और घटना से जुड़े पहलुओं के बारे में हर किसी को सब कुछ मालूम होता है। व्‍यक्‍ति की अपनी निजी ज़िन्‍दगी वहाँ न के बराबर होती है। इस घटना के बारे में पता चलते ही मामले पर विचार करने के लिए गाँव में रहने वाले उसकी जाति के तथाकथित मान-मर्यादा के ठेकेदारों ने आनन-फानन में एक पंचायत बुलायी।

UnjustJudge2 शुरू से ही यह पति-पत्‍नी पंचायत के सामने एक कोने में दुबके बैठे थे। महिला के भागने से लेकर वापस आने तक की पूरी कहानी उसके पति ने पंचायत को सुनाई। फिर पंचायत में बड़े-बुजुर्गों और समाज के नैतिकता के ठेकेदारों ने महिला के भागने की परिस्‍थितियों पर विचार किया। पूरी सुनवाई और विचार-विमर्श के बाद पंच-परमेश्‍वर ने महिला को ही दोषी ठहराया। पंचायत का कहना था कि यह महिला दूसरी जाति के व्‍यक्‍ति के साथ भाग गई थी। उसे भागना ही था तो उनकी जाति के लोगों में मर्दों की कमी नहीं थी। उन्‍हें यह अपनी बिरादरी की मर्दानगी का अपमान लगा। पंचायत ने न तो ठेकेदार और औरत भगाने वाले की अमीरी और मजदूर की गरीबी की परिस्‍थितियों पर कोई ध्‍यान दिया और न ही इनके भविष्‍य में चैन की जिन्‍दगी जीने की इच्‍छा की ही परवाह की। पंचायत का निर्णय था कि चूंकि उस औरत ने दूसरी जाति के आदमी के साथ भागकर पूरी जाति की इज्‍जत व सम्‍मान को मिट्‌टी में मिला दिया था, अतः गाँव के उसी जाति के सभी पुरुष इस महिला से बदला लेंगे और उस औरत को अपनी मर्दानगी का प्रमाण देगें। पंचायत द्वारा इस महिला को दोषी ठहराया गया था पर आश्‍चर्यजनक बात यह थी कि दोषी को अपना पक्ष रखने के लिए एक भी शब्‍द बोलने का अवसर नहीं दिया गया था।

पंचायत के निर्णय के बाद उसकी जाति के लोगों में अपना पौरुष सिद्ध करने की होड़-सी लग गई। मजदूर का एक कच्‍चा खपरैल का घर था और उसी कोठरी के एक कोने में टूटी-फूटी चारपाई पर महिला के साथ जाति के ठेकदारों ने एक-एक कर सामूहिक बलात्‍कार किया। बेचारी व बेबस महिला के शरीर के साथ खिलवाड़ होता रहा, उसकी इज्‍जत तार-तार होती रही परन्‍तु उसमें न तो विरोध की शक्‍ति थी और न ही वह विरोध करने के लिए सक्षम थी। उसका असहाय पति भी दरवाजे के बाहर खड़ा रहा और एक-एक करके सोलह लोगों को अन्‍दर जाते और आते देखता रहा। यह कुकृत्‍य रात के लगभग नौ बजे शुरू हुआ था और आधी रात तक महिला के बेहोश होने के बाद ही रुक पाया। यह सारी हैवानियत तब रुकी जब उसकी बेहोशी से लोग डर गए कि कहीं महिला मर तो नहीं गई। विडम्‍बना यह थी कि गाँव के किसी भी बड़े-बूढ़े ने इसका विरोध नहीं किया। पूरे गाँव की जानकारी में इतना जघन्‍य अपराध होता रहा परन्‍तु किसी ने भी न तो इसे रोकने की कोशिश की और न ही पुलिस में जाकर मामले की रिपोर्ट करने की कोशिश की।

प्रातः होने पर यह मजदूर किसी की बैलगाड़ी उधार माँगकर, अपनी पत्‍नी को उसी टूटी-फूटी चारपाई सहित, जिसमें कि महिला के साथ बलात्‍कार हुआ था, बैलगाड़ी में डालकर थाने पर ले आया और घटना की सूचना थानाध्‍यक्ष को दी। महिला के पति से यह सब जानकारी प्राप्‍त कर मुझे जातीय पंचायतों के इस तरह के शर्मनाक फैसले पर अत्‍यन्‍त अफसोस हुआ और गुस्‍सा भी आया। मैं अस्‍पताल से तत्‍काल थानाध्‍यक्ष के साथ घटनास्‍थल के लिए चल पड़ा।

गाँव में पहुँचकर मैंने उस मजदूर की कच्‍ची कोठरी व इस जघन्‍य अपराध के घटनास्‍थल को देखा। यह घर गाँव के एक कोने में स्‍थित था। बीच में एक बड़ा-सा कच्‍चा आँगन था और उसके चारों ओर छोटी-छोटी कोठरियाँ बनी थीं। उन्‍हीं में से एक कोठरी उस मजदूर की थी। इसी बीच के आँगन में यह पंचायत हुई थी, जिसमें यह शर्मनाक, अमानवीय और पाशविक फैसला सुनाया गया था। मौके पर हुई पूछताछ व तफ्‍तीश से पूरी घटना स्‍पष्‍ट हो चुकी थी। जैसा कि पीड़ित महिला के पति ने बताया था, यह शर्मनाक घटना वैसे ही वहीं पर घटी थी।

मैंने पीड़ित महिला के साथ बलात्‍कार करने वाले सभी सोलह लोगों की गिरफ्‍तारी के आदेश दिए। इन लोगों के अतिरिक्‍त मैंने पंचायत में फैसला सुनाने वाले सभी पंचों को भी गिरफ्‍तार करने के आदेश दिये, क्‍योंकि ये सब इस जघन्‍य अपराध में सह-अपराधी थे। थानाध्‍यक्ष ने मुझे समझाने की कोशिश की कि ऐसा करने से क्षेत्रा के जाति-विशेष के सारे लोग नाराज हो जाएँगे, और थाना क्षेत्रा में शांति व्‍यवस्‍था बनाए रखना मुश्‍किल हो जाएगा। इसके बावजूद मेरे आदेश स्‍पष्‍ट थे। जाति की झूठी मान-मर्यादा के नाम पर पंचायत ने पूरी मानवता को शर्मसार एवं कलंकित कर डाला था। यह कैसे पंच परमेश्‍वर थे जिनका दिल इतने अमानवीय, पाशविक एवं पूरी नारी जाति को बेइज्‍जत करने वाले आपराधिक फैसले को करते वक्‍त भी नहीं पसीजा! इस तानाशाही फैसले के आगे तो द्रौपदी का चीर हरण भी फीका पड़ जाएगा। ऐसे पंच-राक्षसों को यदि छोटी-छोटी बातों से डर कर सजा नहीं दी गई तो समाज में जाति के नाम पर इस तरह के जघन्‍य अपराध भविष्‍य में होते रहेंगे। इसलिए गिरफ्‍तारी तत्‍काल की जानी आवश्‍यक थी।

थानाध्‍यक्ष की यह भी सोच थी कि इसको जाति-विशेष के लोगों से कुछ मुआवजा दिला दिया जाए और मामले को रफा-दफा कर दिया जाय। तब मेरी समझ में आया कि थानाध्‍यक्ष शुरू में सूचना देते वक्‍त क्‍यों डरा हुआ था। हमारी व्‍यवस्‍था की त्राासदी यह है कि व्‍यवस्‍था के संचालन के लिए जो लोग जिम्‍मेदार हैं उन्‍होंने मामले पर कभी भी सही दृष्‍टिकोण से विचार नहीं किया और खुद को बचाने के चक्‍कर में इस तरह के मामले को दबाने में ही यकीन किया है। यह मानकर कि उसके क्षेत्रा में इतना जघन्‍य अपराध कैसे हो गया, थानाध्‍यक्ष के विरुद्ध निलम्‍बन की कार्यवाही न हो जाय, इसलिए वह डरा हुआ था। इस तरह के अपराध में थानाध्‍यक्ष क्‍या कर सकता था? यह उसके सक्रिय होने से रुकने वाले अपराधों में से नहीं था, यह तो एक प्रकार का सामाजिक अपराध था, जो लोगों की संकुचित दृष्‍टि और गन्‍दी मानसिकता का परिणाम था। जाति के सम्‍मान के नाम पर एक महिला के साथ इतना बड़ा घृणित कार्य कर डाला गया था। मैंने अपने निर्णय पर अडिग रहते हुए थानाध्‍यक्ष को तत्‍काल पूरी कार्यवाही करने के निर्देश दिए। मैंने उसे यह भी आश्‍वासन दिया कि उसके विरुद्ध कुछ नहीं होने वाला था बल्‍कि यदि उसने घटना को दबाने का प्रयास किया होता तो उसके विरुद्ध निश्‍चित रूप से कार्यवाही होती।

मेरे आश्‍वासन के बाद थानाध्‍यक्ष ने जोश और हौसला दिखाया व सभी अपराधी और उनका साथ देने वाले पंचायत के सदस्‍यों को गिरफ्‍तार कर जेल भेजा गया और उनके विरुद्ध न्‍यायालय में मुकदमा चलाने हेतु चार्ज- शीट न्‍यायालय भेज दी गई।

यह घटना कितनी बड़ी और सनसनीखेज थी, इसका अन्‍दाजा मुझे अगले दिन अखबारों में छपे समाचारों से मिला। अगले दिन इस घटना को सभी क्षेत्राीय व राष्‍ट्रीय अखबारों द्वारा प्रथम पृष्‍ठ पर प्रमुखता से छापा गया था। तीसरे दिन राष्‍ट्रीय महिला आयोग भी पूछताछ हेतु रुड़की आया। मीडिया और महिला आयोग द्वारा घटना पर दुख प्रकट किया गया किन्‍तु पुलिस के कार्य की सराहना की गई।

थानाध्‍यक्ष को अब जाकर मेरी बात समझ में आई कि यदि उसने घटना को छिपाने या दबाने का प्रयास किया होता तो वह भी एक प्रकार का अपराध कर रहा होता और खाकी को इंसानियत की मदद न करने पर दागदार होना पड़ता। पीड़ित को न्‍याय न दिलवाना भी तो आखिर एक अपराध है!

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(अशोक कुमार)