आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों की
आत्मा जैसे मर गई है...
रह गई है सिर्फ राख बाकी।
इन मरी हुई आत्माओं वाली...
आधुनिकता के नाम पर
चलती-फिरती मशीनों को...
करते हुए मानवता की हत्या
देखता रहता हूँ मैं...
नितान्त अकेला !
(‘मेरी डायरी' से - जून, 1986)
हमारे समाज में भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हो चुकी हैं। नौकरी के शुरुआती दिनों में ही सहायक पुलिस अधीक्षक इलाहाबाद के रूप में मेरे सामने भ्रष्टाचार से सम्बन्धित दो प्रकरण आए। मैंने नई-नई सेवा शुरू की थी, इसलिए नया-नया जोश भी था। इन दोनों प्रकरणों में ऐसी प्रभावी कार्यवाही की गई कि आज भी लोग उदाहरण के रूप में इन घटनाओं को याद करते हैं।
ए.आर.टी.ओ. की सरे-राह डकैती
एक दिन लगभग बीस-पच्चीस ड्राइवर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, इलाहाबाद के पास शिकायत लेकर पहुँचे। इन ड्राइवरों द्वारा बताया गया कि उनके ट्रक तीन-चार दिन से दिल्ली-कलकत्ता हाईवे पर खड़े हैं व उनको ए.आर.टी.ओ. के स्टाफ ने रोका हुआ है। ए.आर.टी.ओ. का स्टाफ उनसे पाँच-पाँच हजार रुपये की माँग कर रहा है, जबकि उनके पास देने को इतना पैसा नहीं है।
ड्राइवरों ने यह भी बताया, ‘‘साहब! हमने ए.आर.टी.ओ. के हाथ जोड़े और कहा कि आप हमारा चालान कर दें। जो भी दण्ड होगा उसे हमारे मालिक भर देंगे... लेकिन हमें जाने तो दीजिए। मगर उन लोगों ने हमारे कागज भी जमा करा लिए हैं और चालान भी नहीं कर रहे हैं। ऐसी हालत में बिना कागजों या चालान के हम आगे भी नहीं जा सकते। हमें यहाँ रुके हुए चार-पाँच दिन हो चुके हैं। अब हमारे पास खाने तक के पैसे नहीं बचे हैं।''
उनकी व्यथा सुनकर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने इन सभी लोगों को मेरे पास भेज दिया और आदेश दिया कि यदि इनकी बात सच है तो इस मामले में ट्रैप की कार्यवाही की जाय। मैंने इन सभी ड्राइवरों से विस्तार से बात की और उनकी व्यथा की गहराई में जाकर मामले को समझने की कोशिश की। तत्पश्चात् थानाध्यक्ष के साथ एल.आई.यू. स्टाफ को सादे कपड़ों में भेजा तो पूरी बात वैसी ही पाई जैसी कि ड्राइवरों द्वारा बतायी गयी थी। जाँच से पाया गया कि यह एक प्रकार से भ्रष्टाचार की अति का मामला था। वर्ष 1992-93 में पाँच हजार की कीमत आज की अपेक्षा दस गुना ज्यादा थी। चालकों से इतनी बड़ी माँग करना और उनको इतने दिनों तक रास्ते में रोकना किसी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता था। यदि ए.आर.टी.ओ. का स्टाफ इन चालकों का चालान कर देता और उनसे छोटी-मोटी वसूली भी कर लेता तो शायद ये ड्राइवर पुलिस तक नहीं पहुँचते। परन्तु उनकी माँग ड्राइवरों की हैसियत से बहुत ज्यादा थी। जो नजदीक के ड्राइवर थे, उन्होंने तो अपने मालिकों को बुलवाकर छुटकारा पा लिया था किन्तु पंजाब, हरियाणा और दिल्ली साइड के ड्राइवर दूरी की वजह से अपने मालिकों को नहीं बुला पा रहे थे और तीन-चार दिन से वहीं जमा हो गए थे। इनमें से एक रिटायर्ड पुलिसकर्मी भी था, जो हिम्मत करके पुलिस तक शिकायत करने आ गया और अन्य ड्राइवरों को भी अपने साथ बुला लाया।
जाँच से पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद मैंने ट्रैप की योजना बनाई। हस्ताक्षर किए हुए कुछ नोट पुलिस से रिटायर्ड ड्राइवर को दिये गए और उसके साथ सादे कपड़ों में स्टाफ लगाया गया। ज्यों ही यह ड्राइवर एआरटीओ के ऑफिस पहुँचा, उसके आदमी उसे सीधे साहब के पास ले गए, जहाँ ए.आर.टी.ओ. ने बिना किसी शर्म, हिचकिचाहट या छिपा-छिपाई के वह पैसे ले लिए और बोला ‘‘इतने दिन से परेशान घूम रहे थे, पहले से यही काम कर लेते तो ऐसी नौबत ही क्यों आती। अपने बाकी साथियों को भी कुछ अक्ल दिलाओ, कितने दिनों तक वे यों ही हाईवे पर डेरा डाले पड़े रहेंगे''। जैसे ही ए.आर.टी.ओ. ने पैसे लिए, वैसे ही हमारे स्टाफ ने उसे रंगे हाथों गिरफ्तार कर लिया।
इस पूरे प्रकरण का सबसे सनसनीखेज़ पहलू न्यायालय में तब देखने को मिला जब ए.आर.टी.ओ. की जमानत अर्जी पर जिला जज द्वारा सुनवाई की जा रही थी। यह ए.आर.टी.ओ. क्षेत्र में इतना बदनाम था कि सभी वकीलों ने न्यायालय परिसर में ही नारेबाजी शुरु कर दी कि ऐसे बेईमान आदमी की जमानत पर सुनवाई ही नहीं की जानी चाहिए। कोई भी वकील उसकी जमानत के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि वह वकीलों से भी ड्राइविंग लाइसेंस बनाने के लिए ऊँची फीस वसूला करता था।
ऐसा नहीं है कि सभी ए.आर.टी.ओ. भ्रष्ट होते हैं, कुछ अच्छे भी होते हैं और कुछ तो अपना नुकसान उठा कर भी मदद करते हैं। किन्तु जब कोई अन्याय और भ्रष्टाचार की सीमाएँ लाँघ जाता है तो इसी तरह का इलाज कारग़र होता है। अखबारों ने इस घटना को प्रमुखता से छापते हुए इसे जनता की जीत के रूप में प्रकाशित किया। एक अखबार ने तो यहाँ तक लिखा था “सड़क पर पड़ रही थी डकैती!'' एक अधिकारी के लिए इससे अधिक शर्म की और क्या बात हो सकती थी!
सतर्कता निरीक्षक ही बना लुटेरा
दूसरे प्रकरण में बिजली विभाग की सतर्कता शाखा के एक इंसपेक्टर के खिलाफ़ शिकायत का एक मामला था। इंसपेक्टर पुलिस विभाग से ही प्रतिनियुक्ति पर बिजली विभाग में जाते हैं। बिजली विभाग की सतर्कता शाखा का मुख्य काम बिजली की चोरी रोकना होता है। उनको यह देखना होता है कि कहीं कोई बिजली का अनधिकृत उपभोग तो नहीं कर रहा है। इस सतर्कता निरीक्षक की भी शिकायतें थीं और वह बिजली विभाग का फायदा करने के बजाय खुद ही लाखों की अवैध वसूली कर अपने फायदे में लगा हुआ था। यह लोगों के घरों में जाकर उनके खिलाफ़ बिजली का अनधिकृत उपभोग करने के नाम पर उनके विरुद्ध मुकदमा पंजीकृत कराने की धमकी देता था और इसी एवज में उनसे पैसे वसूलता था। इस निरीक्षक के सर्वाधिक शिकार प्रतिष्ठित होटल व्यवसायी, उद्योगपति, नर्सिंग-होम संचालक, चिकित्सक आदि होते थे जो किसी भी तरह की मुक़दमेबाजी के डर से तथा अपनी इज्जत बचाने के लिए इस सतर्कता इंस्पेक्टर को हजारों रुपये की रिश्वत देकर मामला रफा-दफा कर देते थे।
कुछ लोग वास्तव में बिजली चोरी करते हैं और सरकार को बड़ा नुकसान पहुँचाते हैं। ये लोग भ्रष्ट अधिकारियों से मिलकर कुछ ले-देकर मामला रफ़ा-दफ़ा करा देते हैं। ऐसी स्थिति में रिश्वत देने वाला व लेने वाला दोनों खुश रहते हैं।
इसी तरह की प्रताड़ना से पीड़ित एक डॉक्टर-युगल एस.पी. सिटी, इलाहाबाद के पास पहुँचा और उन्होंने इस युगल की पूरी बात सुनकर उन्हें ट्रैप की कार्यवाही हेतु मेरे पास भेज दिया। ये नगर की एक प्रतिष्ठित महिला चिकित्सक थीं, जो अपने पति के साथ मेरे पास आयी थी। उन्होंने बताया कि लगभग एक सप्ताह पूर्व बिजली विभाग का यह सतर्कता दल शाम को लगभग चार बजे उनके क्लीनिक पर आया था और इन्होंने छापा मारा था। इस दल के प्रभारी एक पुलिस इंसपेक्टर थे और उनके साथ कुछ अन्य पुलिस कर्मी व बिजली विभाग के कर्मचारी भी थे। इन लोगों ने हमारे क्लीनिक पर लगे तीनों मीटरों की पड़ताल की और जाँच-पड़ताल के बाद घोषित किया कि इनमें से एक मीटर बन्द पड़ा हुआ है और उसका सीधा कनेक्शन चालू कर बिजली की चोरी की जा रही है। सतर्कता इंसपेक्टर ने इसके बाद हमें काफी डराया एवं बताया कि पिछले कई सालों का बिल तो आपको भरना ही पड़ेगा साथ ही जुर्माना भी देना पड़ेगा व बिजली चोरी के जुर्म में जेल भी जाना पड़ेगा। बातों-बातों में इंसपेक्टर के एक आदमी ने यह भी इशारा किया कि इस मामले को ले-दे कर रफा-दफा किया जा सकता था।
महिला चिकित्सक ने आगे बताया, ‘‘चूँकि हम लोगों ने किसी प्रकार की भी चोरी नहीं की थी, इसलिए हमने सतर्कता दल से कहा कि जब हमने कोई गलती ही नहीं की है तो हम क्यों गलत रास्ता अपनाएँ। आखिर हम क्यों डरें?... हम तो आपको एक भी पैसा नहीं देंगे।'' डॉक्टर ने फिर कहा, ‘‘तब उस सतर्कता दल ने हमारे मीटर की बिजली काट दी, उसे सील कर दिया और उसके कुछ तार उखाड़कर अपने साथ ले गए। हमारे सामने उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की और हमें फिर धमकाया कि हम पुलिस में एफ.आई.आर. कराने जा रहे हैं और तुम्हारे खिलाफ़ बिना जमानती वारण्ट जारी कराएंगे और तुम लोग सीधे जेल जाओगे।'' जाते-जाते उस निरीक्षक ने फिर से ऐसा इशारा किया कि अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं था और ले-दे करके मामले को रफा-दफा किया जा सकता था।
महिला चिकित्सक के डॉ. पति ने बताया, ‘‘साहब उन्होंने हमारे साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया, जैसे कि हम कोई चोर-उचक्के हों। ये लोग बहुत ही अशोभनीय भाषा में बात कर रहे थे... अब आप ही बताइए, आपको क्या हम अपराधी लगते हैं? अगर ऐसा है तो हम दोनों को अभी जेल भेज दीजिये वरना सरकारी नौकरी करने वाले ऐसे जालिमों के विरुद्ध ऐसी कठोर कार्यवाही कीजिए कि भविष्य में लोग ऐसी हिम्मत न कर पाएँ।''
अब मैं उनकी पूरी बात समझ चुका था। मैंने एल.आई.यू. से बिजली विभाग के इस इंसपेक्टर की आम शोहरत के बारे में जाँच करवाई। जाँच में पाया गया कि ऐसा मात्र इस डॉ. दम्पत्ति के साथ ही नहीं हो रहा था बल्कि यह इंसपेक्टर शहर में पचासों लोगों को अपना शिकार बना चुका था। मैंने डॉ. दम्पत्ति के साथ मिलकर भ्रष्टाचार में लिप्त इस इंसपेक्टर को रंगे हाथों गिरफ्तार करने की योजना बनायी। योजना के अनुसार महिला डॉक्टर को बिजली विभाग के सतर्कता दल से सौदा करने हेतु भेज दिया गया। जिन्होंने रिश्वत में दी जाने वाली धनराशि, समय व स्थान के बारे में बात पक्की कर ली तथा वापस आकर मुझे अवगत कराया। तय समय पर पूर्व निर्धारित होटल में डॉ. दम्पत्ति पैसे लेकर इस इंसपेक्टर को देने के लिए पहुँचे। मेरे नेतृत्व में हमारी टीम ने सादे कपड़ों में अपना जाल पहले ही बिछाया हुआ था। अन्ततः सब कुछ हमारी बनाई योजना के अनुसार हुआ और यह निरीक्षक डॉ. दम्पत्ति से पैसे लेते हुए रंगे हाथों गिरफ़्तार कर लिया गया। उस समय इंसपेक्टर के पास से पचपन हजार रुपया बरामद हुआ था।
सतर्कता विभाग के सभी कर्मी इस निरीक्षक की तरह भ्रष्ट नहीं होते। अच्छी बात तो यह थी कि पुलिस से बिजली विभाग के सतर्कता प्रकोष्ठ में प्रतिनियुक्ति पर गये इस भ्रष्ट निरीक्षक को सलाखों के पीछे करने में भी पुलिस कर्मियों का ही हाथ था ।
जिन लोगों की जिम्मेदारी बिजली चोरी रोकने की थी, वे लोग खुद ही बहुत बड़ी चोरी में लिप्त थे एवं मोटा पैसा खाकर बिजली चोरी करवा रहे थे। आश्चर्य की बात यह थी कि ऐसे लोगों में न तो किसी प्रकार की शर्म थी और न ही कोई पश्चाताप की भावना!
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